प्रकाशक

आकाशगंगा प्रकाशन,4760-61,23अंसारी रोड,दरियागंज, नयी दिल्ली-110002 मूल्य-150 रुपये

Friday, December 2, 2011

ग्लोबलाइजेशन के दौर में कला बाज़ार


-अश्विनी कुमार
समीक्षा
  •  सम्पर्क-भारतीय भाषा परिषद, 36 ए, शेक्सपियर सरणी, कोलकाता-700017

मोबाइल-9230004227, ईमेल-asharu2009@gmail.com

कला बाज़ार दरअसल कपोल गल्प नहीं बल्कि यह वह सच्चाई है जिससे हम सभी खासकर महानगरीय सभ्यता में रहने वाले लोग अक्सरहा टकराते हैं। ग्लोबलाइजेशन ने दुनिया के बाज़ार को जिस प्रकार बदला है और लगातार बदल रहा है वहां अक्सर बाज़ार का दबाव हर क्षेत्र में बढ़ा है। जिस दौर में सब कुछ बिकता है वहां कला के बाज़ार की संभावनाएं प्रबल हो उठती हैं और यह किसी हद तक स्वाभाविक भी है। बस बेचने की कला आये तो सब कुछ बिक सकता है। और ग्लैमर की दुनिया में हुस्न के जादू की ऊंची कीमत लग सकती है। कला बाज़ार उपन्यास के लेखक अभिज्ञात के शब्दों को उधार लेकर कहें तो- जिस्म भी हथियार है। तभी तो उपन्यास में आयी एक पात्र रीता लालवाणी से रीता तायवाला बन जाती है सिर्फ़ इसलिए कि लालवाणी सरनेम ग्लैमर की दुनिया से मेल नहीं खा रहा था और बाज़ार में वह अपनी अच्छी क़ीमत नहीं लग पा रही थी।
आत्मकथा शैली में लिखा यह उपन्यास इसलिए भी महत्त्वपूर्ण दिखता है कि हरेक पात्र बाज़ार के साथ चलना चाहता है। यहां तक कि लेखक के रूप में उपस्थित प्रतिनिधि पात्र की पत्नी अंजू भी। उपन्यास की शुरुआत नाटक की पाण्डुलिपि की खोज से प्रारम्भ होती है। और अन्त भी दिलचस्प है क्योंकि पाण्डुलिपि अंजू ही फाड़कर फेंक देती है लेकिन इतना ज़रूर हुआ कि इस पाण्डुलिपि की खोज कई दिलचस्प पात्रों को सामने लाती है और ये पात्र मौजूदा समय पर अपनी सार्थक टिप्पणियों के साथ उपस्थित होते हैं। इसी क्रम में लेखक रत्ना और मोरा जैसे पात्रों से जुड़ता है जो मां बेटी हैं और लेखक दोनों के प्रति अपने मन में आकर्षण महसूस करता है। एक और पात्र मोरा है जिसकी मज़बूरी कहिए या नियति बाज़ार में टिके रहना चाहती है। एक ऐसे बाज़ार में जहां ग्लैमर की चकाचौंध है। कथानायक की पत्नी अंजू पेंटिंग की दुनिया से ताल्लुक रखती है और वह क्रमशः बाज़ार का हिस्सा बनती चली जाती है। कामयाब होने और पेंटिंग की दुनिया में बिकने के लिए वह धर्म का इस्तेमाल भी करने से गुरेज नहीं रखती। वह ऐसी पेंटिंग्स ही बनाती है जिसकी बाज़ार में अच्छी कीमत मिलने की संभावना होती है। धर्म से लेकर जिस्म तक वह बाज़ार को ध्यान में रखकर पेंट करती है।
उपन्यास में लेखक ने स्त्री के दर्द को कई रूपों और स्थितियों में व्यक्त किया है, यहां तक कि समलैंगिकता के मुद्दे भी इसमें शामिल हैं। भारत-पाकिस्तान के विभाजन के दौरान स्त्री की स्थिति को भी इस उपन्यास में तल्खी से उभारा गया है। इस उपन्यास में एक तरफ नारी का जिस्म हथियार है जिसके बूते वह सफलता की सीढ़ियों चढ़ने मे कामयाब होती है तो दूसरी तरफ़ वह जिस्म के मोर्चे पर शोषित है। उपन्यास के एक पात्र के जरिए कहलाया गया है- जिस्म छिपाने नहीं दिखाने की चीज़ है। वह बंद कमरे में दिखाया जाये तो उसकी कोई क़ीमत नहीं।
एक अन्य प्रसंग में भी नारी की स्थिति से जुड़ा एक संवाद उल्लेखनीय है-मैं यह भली-भांति जानती हूं कि दुनिया में सदियों से नारी जिस्म से बढ़कर कोई आकर्षण पैदा नहीं हो सका है। इस बाज़ारवाद के दौर में महंगी से महंगी वस्तु भी औरत से कम आकर्षक है।...हर दौर का कलाकार उसी औरत के जिस्म को अपनी कलाकृतियों में अंकित करता रहा है जो पहले भी अंकित हो चुका था मगर हर बार एक नयी चमक लोगों को दिखी।
उपन्यास में इस बात की पुष्टि हो जाती है कि बाज़ार एक ऐसा जादू है जहां चालाकी से सब कुछ आसानी से बेचा और ख़रीदा जा सकता है। यह बात दीगर है कि जो शख्स अपना सब कुछ बेचकर कुछ और खरीदना या पाना चाहता है वह ज़रूरी नहीं कि मिले लेकिन वह इस बाज़ार में पहुंचता ज़रूर है।
उपन्यास को पढ़कर इस बात का अनुभव होता है कि हम कहीं से भी स्वतंत्र नहीं हैं बल्कि बाज़ाररुपी सत्ता के हाथों बने खिलौने हैं और वह अपनी इच्छा के अनुसार हमें नचाती रहती है। और के विविध रूपों और ग्लैमर की दुनिया के पीछे की हकीकत से यह उपन्यास हमें वाकिफ कराता है। चार खण्डों में विभक्त यह उपन्यास इस बात की तार्किक परिणति तक ले जाता है कि यदि हमें यदि हमें बाज़ार के साथ चलना है अथवा वहां टिकना है तो अपने-आप को बाज़ार के मुताबिक गढ़ना होगा। यह उपन्यास की सच्चाई है और ज़माने की भी। और इनसे परे जो जीवन जीना चाहते हैं वे अज्ञात ही रह जाते हैं। दरअसल इसमें दोष हमारा नहीं, व्यवस्था विशेष का भी नहीं बल्कि यह दोष है ग्लोबलाइजेशन द्वारा आयी दुनिया का। इस दुनिया के केन्द्र में है बाज़ार और वहीं पर खड़ी है स्त्री। हर उत्पाद को उपभोक्ताओं के बीच कपाना है, जहां स्त्री देह की जरूरत है। अलबत्ता अभिज्ञात का कला बाज़ार इसी बात की पड़ताल करता है और विमर्श को नये सिरे से परिभाषित करते हुए वह कभी मोरा केरूप में आती है तो कत्याल के रूप में, कभी रत्ना तो कभी अंजू के रूप में। सभी पात्र अपनी बनावट में नयी दिखती हैं। हालांकि उन सभी में अपने को बेचने की होड़ है और इसके लिए उनमें नित नया दिखने की चाहत भी है। उनके मन में एक बात और चलती रहती है कि यह जो ढलने वाला जिस्म है, कैमरे में कैद हो जाने के बाद अमर हो जायेगा। इसी कारण कम से कम समय में सब कुछ पाने का उतावलापन है और इस सब कुछ पा लने की होड़ में वे अपना सब कुछ बेचने को तत्पर हैं, अपनी देह का एक-एक अंग। एक बार नहीं, कई कई बार। किसी एक के हाथ नहीं कइयों के हाथ। मन में यह ख्वाइश भी कि हर बार अपनी देह नये रूप में बेचे और अधिकाधिक कीमत भी वसूल करे। उपन्यास बेहद रोचक और पठनीय है। यह सोचने को भी विवश करता है कि हम बाज़ार में खड़े हैं और हमारे चाहे अनचाहे हमारी कीमत लग रही है। हम वसूल पायें न पाये कीमत तो लगेगी ही। चौकन्ने रहे तो अच्छी कीमत वसूल पायेंगे, वरना कब कहां बेच दिये जायेंगे हमें पता ही नहीं चलेगा।

Friday, November 11, 2011

समाज के स्थापित मूल्यों से बार-बार टकराता उपन्यास




पुस्तक समीक्षा
-बद्री नाथ वर्मा
पुस्तक का नाम- कला बाज़ार/ उपन्यास/लेखक-अभिज्ञात/ प्रकाशक-आकाशगंगा प्रकाशन,4760-61,23अंसारी रोड,दरियागंज, नयी दिल्ली-110002 मूल्य-150 रुपये

'कला बाजार' जैसा कि नाम से ही आभास होता है कि कला आज पूरी तरह से बाजार की जकड़ में आ गयी है। वह पूरी तरह से बाजारू वस्तु बन गयी है, और इस मुद्दे को बड़ी ही शिद्दत से उठाया है उपन्यासकार अभिज्ञात ने अपने उपन्यास कला बाजार में । आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह उपन्यास काफी कुछ सोचने को मजबूर करता है।
पश्चिमी जीवनशैली के अंधानुकरण का परिणाम यह हुआ है कि सृष्टि की सबसे सुन्दर रचना मानी जाने वाली नारी आज बाजार की वस्तु भर बनकर रह गयी है। सबसे बड़ी बिडंबना तो यह है कि खुद नारी को भी इससे गुरेज नहीं है। उसे अपनी देह की शक्ति का एहसास हो गया है इसलिये वह अपने देह को हथियार बनाकर आगे बढ़ने की आपाधापी में लगी हुई है। हालांकि यह एक ऐसी अंधी गली है जिसका कोई ओर छोर नहीं नजर आता । ग्लैमरस दुनिया के पीछे की काली सच्चाइयों को परत दर परत खोलता अभिज्ञात का यह उपन्यास पठनीय तो है ही संग्रहणीय भी है। कसी हुई कथावस्तु हर कदम पर पाठकों को झकझोरती है। पुस्तक इस मायने में कामयाब है कि यह पाठक से अपना तारतम्य बनाये रखती है। कसी हुई कथावस्तु उपन्यास का सकारात्मक पक्ष है। प्रथम पृष्ठ से ही यह पाठक को बांधे रखने में पूरी तरह से सक्षम है। पढ़ते समय कहीं भी यह उबाऊ नहीं लगता। भाषा सहज और सरल है। लेखक की शब्दों पर पकड़ उपन्यास में जगह-जगह परिलक्षित होती है। कम शब्दों में अपनी बात कह देना लेखक का वैशिष्ट्य है।
चार खण्डों में बंटा उपन्यास आकार में छोटा होते हुए भी विस्तृत फलक लिए हुए है। इसके हर पात्र अपनी भूमिका की तलाश में समाज के स्थापित मूल्यों से टकराते से प्रतीत होते हैं । इस टकराव में वे टूटते हैं, बिखरते हैं किंतु वे इससे हार नहीं मानते बल्कि पूरी ऊर्जा के साथ फिर उठ खड़े होते हैं। मूल्यों की अपनी अलग ही परिभाषा गढ़ते हैं। इस कृति में नारी मन की गहराइयों को अंजू के माध्यम से जिस खूबसूरती से उकेरा गया है वह काबिलेतारीफ है। यह लेखक की एक अतिरिक्त उपलब्धि होने के साथ ही नारी मन की समझ का परिचायक भी है। उन्होंने नारी मन की बड़ी बारीकी से इस कृति में पड़ताल की है। दस साल पहले लिखे बीस सफे के एक एकांकी नाटक की खोयी पांडुलिपि की तलाश से शुरू हुआ कथानक अपने में कई कथाओं को समेटे हुए है। पांडुलिपि की तलाश के दौरान कई कहानियां जन्म लेती हैं। हर कहानी पाठक के बीच जुगुप्सा बनाये रखती है।
अचानक 90 के दशक में भारतीय सौन्दर्य को वैश्विक मान्यता मिलने जैसी घटनाएं बाजारवाद का जीता जागता नमूना है। स्त्री देह को प्रधानता देने वाले बाजार में खुद स्त्री भी बिकने को तैयार है। उससे इसे जरा भी गुरेज नहीं है कि ग्लैमरस की दुनिया का हिस्सा बनने के लिए उसे क्या कीमत चुकानी पड़ती है । जिस चतुराई व उदात्तता से पूंजी लोगों को अपने मोहपाश में बांध रही है, उसकी गहरी पड़ताल कला बाजार में की गयी है।
उपन्यास की एक नारी पात्र का यह कथन कि ' दुनिया में सदियों से नारी जिस्म से बढ़कर कोई आकर्षण पैदा नहीं हो सका है। मनुष्य की सारी प्रगति औरत का तोड़ नहीं गढ़ पायी है। इस बाजारवाद के दौर में भी महंगी से महंगी वस्तु भी औरत से कम आकर्षक है। उसी का नतीजा है कि हर वस्तु को बेचने के लिए औरत की जरूरत होती है। वस्तु के साथ औरत का होना औरत की हैसियत को दर्शाता है। हर दौर का कलाकार उसी औरत के जिस्म को अपनी कलाकृतियों में अंकित करता रहा जो पहले भी अंकित हो चुका था मगर हर बार एक नयी चमक लोगों को दिखी। यह ऐसा आकर्षण है जो कभी खत्म नहीं होने वाला है। सभ्यता के विकास के जितने भी दौर रहे उसमें औरत ही हावी रही, वही केन्द्र में रही। वह पाषाण काल हो या यह इक्कीसवीं सदी। केन्द्रीयता औरत को मिलेगी। ' या फिर यह कहना कि ' पुरुष ने औरत को उसकी असली शक्ति को भुलाने की तमाम साजिशें रची हैं। उसी का नतीजा है कि कई औरतें गुलामी की जिन्दगी जी रही हैं। वरना औरत तो राज करने के लिए बनी है और पुरुष गुलामी के लिए। ' ग्लैमरस दुनिया का हिस्सा बनने को आतुर नारी की उस सोच को प्रतिबिंबित करता है जो इसके लिये हर कीमत चुकाने को तैयार है। चाहे वह स्थापित मान्यताओं के अनुसार अनैतिक ही क्यों न हो। जीवन में सफलता पाने के लिए यदि सीढ़ी के रूप में देह के इस्तेमाल की भी जरूरत होती है तो उसे इससे भी गुरेज नहीं है। उसे अपनी देह की शक्ति का एहसास है। वह इसे अपनी कामयाबी का सीढ़ी बनाकर उस चमक दमक का हिस्सा बनना चाहती है जिसे पूंजीवाद ने जन्म दिया है।
लेखक चूंकि पत्रकारीय पेशे से जुड़े हुए हैं इसलिए वे इस पेशे में घुस आयी बुराइयों व इसके फरेब से भी बखूबी परिचित हैं। उनकी कलम इस पर भी खूब चली है। उपन्यास में कभी मिशन समझी जाने वाली पत्रकारिता के धंधा बन जाने पर बेबाक टिप्पणी की गयी है। समाज में आये बदलाव या यूं कहें कि सामाजिक पतन का असर पत्रकारिता पर भी पड़ा है। कभी मिशन समझी जाने वाली पत्रकारिता अब मिशन न होकर बाकायदा अन्य व्यवसायों की तरह ही यह भी एक व्यवसाय बन गया है। उपन्यास के एक पात्र हरदीप का यह कथन कि इस क्षेत्र में कोई अपनी प्रतिभा के बल पर कायम तो रह सकता है लेकिन तरक्की नहीं कर सकता। यह तल्ख और बेबाक टिप्पणी आज की पत्रकारिता की सच्चाई बयान करती है। अपवादों को यदि छोड़ दिया जाय तो दरअसल हरदीप जैसे चालू टाइप लोग ही आज सफल ! हैं। ऐसे लोग पत्रकारिता के नाम पर अपनी पहुंच व संबंधों के बूते मजे लूट रहे हैं।
उपन्यास में कहीं भी लंबे चौड़े भाषण या बड़े बड़े दावे नहीं हैं लेकिन तिलमिला देने वाले कटाक्ष जरूर हैं। देश विभाजन की त्रासदी का कात्याल के माध्यम से लेखक ने जो भयावह चित्रण किया है वह उनकी सशक्त लेखनी को प्रमाणित करती है। बंटवारे के प्रसंग में यह उल्लेख कि देश विभाजन कर अपना हिस्सा चाहने वालों को औरत की देह से भी हिस्सा क्यों चाहिए था। नारी को भोग्या समझने वाली पुरुष मानसिकता पर करारा प्रहार है।
कला बाजार अपने रचना-शिल्प, कथन और कहने की भंगिमा की उत्कृष्टता के कारण पाठकों पर अपना प्रभाव छोड़ने मे सफल है। रचना में सहज-सरल शब्दों का चयन काबिलेतारीफ है। घटनाक्र के ब्यौरों को इतने संतुलित ढंग से दिया गया है कि वे कहीं भी मायूस नहीं करते। आधुनिकता की होड़ में छीजते नैतिक मूल्यों को जिस सादगी से लेखक ने शब्द दिये हैं वे उनकी विशिष्टता दर्शाते हैं। उपन्यास को पढ़ते समय चीजों को समझने, देखने का नया नजरिया विकसित होता है।



Monday, November 15, 2010

फ्लैप पर

कला बाज़ारकी अन्तर्वस्तु दरअसल समाज की उस सच्चाई से बार-बार टकराती है जो अभी निर्माणाधीन है।भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने भारतीय समाज में परिवर्तन की दिशा ही नहीं बदली, बल्कि उसे तेज़तर भी किया है।समाज के बनते-टूटते मूल्यों पर लेखक की पैनी पकड़ है। एक नये समाज के जन्म का यह साक्षी है, जहांअन्तरविरोध उसकी स्वाभाविक वृत्ति सा प्रतीत होता है। समाजिक हलचलें व्यक्ति को बार-बार उद्वेलित करती हैं।यह उपन्यास अपने पाठक को वहां लाकर खड़ा कर देता है, जहां वह अपने अधिकतम स्वरूप में बलौस दिखायीदेता है। उपन्यास के पात्र नये समाज में अपनी भूमिका तलाश करने में लगे हैं। अपने ढंग से मूल्यों से टकराते हैंचूर होते हैं किन्तु हार नहीं मानते। अपने संदर्भ में अपने मूल्य निर्धारित करते हैं और नयी परिभाषा गढ़ते हैं। यहएक ऐसा बहुआयामी उपन्यास है जो अपने आकार में छोटा होते हुए भी एक विस्तृत फलक लिए हुए है। भारतीयसमाज में एक नयी बनावट का प्रारूप इसमें उपस्थित है। यह पाठक को वहां खड़ा कर देता है जहां इसके पात्र औरकथानक उसके मन में अपनी ज़गह बना लेते हैं और फिर प्रत्येक के लिए स्वतंत्र रूपाकार ग्रहण करते हैं। देश केविभाजन के बाद का पंजाब, माडलिंग, कला, साहित्य और पत्रकारिता की दुनिया की आंतरिक पड़ताल इसकेकथानक और चरित्रों को विश्वसनीय और अर्थवान बनाया है। इसमें एक नयी भाषा, कहन का एक नया लहज़ामिलेगा। पठनीयता इसकी एक और खूबी है। यहां केवल एक खोयी हुई पाण्डुलिपि की खोज नहीं है बल्कि मनुष्यकी अपनी अर्थवत्ता की खोज है। और हां इस उपन्यास में वह नयी नारी भी आपको मिल जायेगी जिस पर भारतीयसमाज में इधर बहस छिड़ी है, जिसके लिए देह भी एक शक्ति है और देहेतर वज़ूद भी मूल्यवान।

भूमिका-इसी बहाने

यह उपन्यास मैंने जालंधर में मार्च 2001 में लिखा है। 'अमर उजाला' में पत्रकारिता के दौरान मुझे अमृतसर और दूर-दराज़ के गांवों में भी जाने का अवसर मिला। देश के विभाजन के कारण सीमा-पार पाकिस्तान से अपना सब कुछ छोड़कर पंजाब आये लोगों पर 'अमर उजाला' के एक स्तम्भ 'पड़ाव' में भी काफी लिखा। इस क्रम में उनके जीवन को ही समझने का अवसर नहीं मिला, बल्कि जीवन के प्रति मेरा स्वयं का नज़रिया भी विकसित हुआ। ये वे लोग नहीं थे जो केवल तबाह हुए थे, बल्कि फिर एक नया जीवन न सिर्फ़ जी रहे हैं और अपनी एक दूसरी पहचान भी बना चुके हैं। कुछ ऐसे भी मिले जो अब तक विभाजन के दंश से उबर नहीं पाये थे। विभाजन से पहले के बने हुए मकान, पतली-संकरी गलियां अमृतसर की, अपने में कई कहानियां समेटे हुए मिलीं, जिनकी आहट मुझे विभाजन की त्रासदी झेल चुके लोगों की बातों में सुनायी देती थीं।

अमृतसर में रिपोर्टिंग के काम से मुझे फ़ुरसत नहीं थी कि उस पर कभी ठीक से विचार कर सकूं। अलबत्ता जब ट्रांसफर होकर जालंधर आ गया और डेस्क पर ड्यूटी लगी तो मुझे समय मिलने लगा अनुभूति व जाने हुए के मंथन का। उसका एक कारण यह भी था कि मेरा परिवार कोलकाता में था और मैं जालंधर में, अपने सहकर्मी सुखविन्दर पाल सिंह चड्ढा का रूप पार्टनर था। इस आगरे के सरदार ने मुझे डिस्टर्ब न कर मुझे सहयोग दिया। इस उपन्यास को तो मैंने पंजाब पर केन्द्रित कर ही लिखने का मन बनाये हुए था किन्तु यह मेरे वश में नहीं रहा। यह कोलकाता की दुनिया में प्रवेश कर गया चुपके से, अनायास, जहां फ़ैशन की दुनिया में उन दिनों हंगामा मचा हुआ था बंगाली बालाओं का, जब मैंने कोलकाता छोड़ा था। बंगाली बालाओं ने विश्व स्तर पर अपनी ओर सबका ध्यान आकृष्ट किया था। मैंने 'जनसत्ता' में फ़ैशन पर काफ़ी कुछ लिखा था और उस दुनिया को भी क़रीब से देखने का अवसर मिला था। वह दुनिया भी इस उपन्यास में समा गयी।

इस उपन्यास को लेकर मैं उत्साहित न होता अगर मेरे पत्रकार मित्रों ने गर्मजोशी भरी प्रतिक्रियाएं न दी होती। इसका पहला समग्र पाठ मेरे और चड्ढा के जालंधर के कमरे में चाय-पकौड़ों के कई दौर में हुआ तथा उसके विभिन्न अध्यायों का वाचन अलग-अलग लोगों ने बारी-बारी से किया। साथ ही खट्टी-मीठी प्रतिक्रियाओं को दौर भी चलता रहा। इसमें शामिल पत्रकार विभिन्न विधाओं के लेखक भी हैं। सुधीर राघव, रणविजय सिंह सत्यकेतु, डॉ.संजय वर्मा, ओमप्रकाश तिवारी, विद्युत प्रकाश मौर्य इसमें शामिल थे। हरिहर रघुवंशी और अमरीक सिंह ने इसके बारे में बाद में पढ़-सुनकर सराहनीय प्रतिक्रियाएं दी थीं। उसके बाद तो मैं इंदौर (वेबदुनिया डाट काम), जमशेदपुर (दैनिक जागरण) होता हुआ आख़िरकार अपने परिवार व अपने आत्मीय संसार में कोलकाता (सन्मार्ग) लौट आया। इस बीच बसने-उजड़ने और बिखरने समेटने का दौर जीवन में चलता रहा। पांडुलिपि यूं ही पड़ी रही। दोस्तों के ई-मेल, पत्र, फ़ोन आते रहे और मेरे हालचाल पूछने के क्रम में इस उपन्यास की बाबत भी पूछताछ चलती रही। वह बोल्ड, धांसू, बम्बर उपन्यास कहां गया? क्या उस पर कोई फ़िल्म-धारावाहिक आदि भी बन रहे हैं जैसे सवाल दगते रहे। अरसे बाद भी उसके प्रथम पाठकों के मन में इसकी याद बनी रही तो इस बात की थोड़ी आश्वस्ति है कि शायद बात कहीं कुछ बनी है।

-अभिज्ञात

खण्ड : एक

वह फ़्लाप नाटक और उसकी पाण्डुलिपि
यह कहानी बनती ही नहीं अगर दस साल पहले लिखे बीस सफे के एक एकांकी नाटक की तलाश में सात साल नहींगुजर जाते। हालांकि वह नाटक मुझे अभी तक नहीं मिला है मगर मन में कहीं कहीं संतोष है कि उसकी तलाशने मुझे ज़िन्दगी के ऐसे दिलचस्प अनुभवों से गुज़रने का अवसर प्रदान किया जो मेरी लेखकीय जिन्दगी को लम्बेसमय तक खूराक देने वाली साबित हुई।
उसने कई कहानियों को जन्म दिया और ऐसी नाटकीय परिस्थितियों से परिचित कराया कि यदि मैंने अपने खोएनाटक के बाद नाटक लिखना छोड़ दिया होता तो कुछ बेहतरीन नाटकों की रचना में सफल होता। हालांकि मैंनेनाटक लिखना छोड़ दिया था उसके काफ़ी दिनों बाद वह नाटक कब खोया इसका कुछ भी अंदाज़ा नहीं लगा।अलबत्ता यही जान पड़ता है कि उस नाटक के मंचन के बाद हुई भगदड़ में मेरे हाथ में फ़ाइल तो रह गई थी मगरशायद उससे नाटक की पाण्डुलिपि गिर पड़ी होगी। इसका पता मुझे उसी दिन चल गया होता यदि मैंने फ़ाइल खोलीहोती, लेकिन लगभग दस साल बाद जब दूरदर्शन के लिए उस नाटक की मांग हुई तो मुझे उसे खोजने का ख़यालआया। इन दस सालों में मैं अपने-आपको एक असफल नाटककार मान कर दूसरी विधाओं में लिखने लगा था, इसलिए अपने इस अंतिम नाटक के प्रति भी अरसे तक लापरवाह बना रहा।
रात भर जागकर लिखे नाटक की पाण्डुलिपि खोने के बाद उसे बरसों तलाश करने की ज़हमत मैं उठाता रहा लेकिनउसे फिर लिखने की मनोदशा कभी तैयार नहीं हो सकी। अपनी खोई पाण्डुलिपि की तलाश में मैंने कितने ही शहरोंके चक्कर लगाए। कितनी ही पुस्तकों की रायल्टी उसमें स्वाहा हो गई। कई बार तो नौकरियों से हाथ धोना पड़ाक्योंकि इस पाण्डुलिपि के फेर ने मुझे ज़िन्दगी की उन राहों पर डाल दिया जहां से वापसी एकदम आसान नहीं थी।मैं बार-बार परिस्थितियों में ऐसा उलझ जाता था या कहिए कि रम जाता था कि मैं अक्सरहा भूल ही जाता था किमैं दरअसल एक पाण्डुलिपि की तलाश में निकला हूं जो लापरवाही से मैंने खो दी है। जिसकी रचना अब मेरे लिएफिर संभव नहीं रह गयी है। कई बार तो मुझे यह भ्रम होने लगता है कि या पाण्डुलिपि की तलाश ज़रूरी है। क्यों मैंएक खोई रचना के पीछे पड़ा हूं। जो हो गया सो हो गया। अब मुझे नए सिरे से नयी बातें सोचनी और लिखनीचाहिए। ख़ास तौर पर उस समय तो और भी यह आवश्यक लगता है जबकि वह रचना हमेशा एक साधारण दर्जे कीलगी और जिसके पहले ही मंचन से मुझे इतनी हताशा हुई कि मैंने नाटक लिखना तक छोड़ दिया। किसी नाटक कोदर्शकों की ऊब को देखते हुए आनन-फानन में कुछ हिस्से बीच में काटते हुए उसे ख़त्म करना पड़े तो उससे बढ़करउसकी असफलता का और क्या प्रमाण हो सकता है। मैं अपनी एक असफल रचना की तलाश में अपनी ज़िन्दगीक्यों गर्त कर रहा हूं ख़ुद इसका ज़वाब मेरे पास नहीं है। क्या किसी असफल रचना की तलाश भी किसी कीज़िन्दगी को माने दे सकती है? क्या कोई असफल रचना अपने आप में किसी सफल रचना से अधिक माने रखतीहै? क्या असफलताओं का पीछा करना मनुष्य की नियति है? इन तमाम सवालों से मेरा कई बार साबका होता रहाहै, जिनका जवाब मुझे हर बार अलग-अलग मिला है, मगर जो जारी रही तो तलाश। खत्म होने वालासिलसिला। जैसे कि मकसद मिल गया हो ज़िन्दगी का।

कई बार लगा है कि शायद हर किसी को तलाश होती है ज़िन्दगी के लिए किसी किसी मकसद की। यह तलाश भीवही है शायद। कोई जानेगा तो शायद यक़ीन नहीं करेगा मेरी इस सनक पर। पहले रीतू ने भी कहां यक़ीन किया थाजिससे शुरू हुई थी यह तलाश। हालांकि वह ख़ुद हर बार एक नयी रीतू मिली। कभी रीता लालवानी तो कभी रीतातायवाला। कभी अभिनेत्री तो कभी गायिका। गारमेंट्स गुड्स का शो-रूम चलाने वाली। वह ख़ुद नहीं मानती किवह जो कुछ कर रही है वह भी उसी तरह की ज़िन्दगी से मेल खाता है। उसको भी यह पता नहीं है कि दरअसल वहखोज क्या रही है। वह किस सफ़र पर निकली हुई है। वह यदि किसी अजाने सफ़र पर नहीं निकली होती तो शायदउसे कोई हर्ज़ नहीं था, मेरा हमसफ़र बनने में। हालांकि यह मैं दावे के साथ नहीं कह सकता कि हमारा अपना साथक़ायम रह सका, उसके पीछे उसकी वज़हें ज़्यादा ज़िम्मेदार थीं क्या मेरी। मैंने उससे कभी कुछ चाहा ही नहीं।केवल उसकी चाहतों का आईना भर बना रहा।

उसी तरह कत्याल और मोरा का भी मेरी ज़िन्दगी में आना और जाना जैसे मेरे वश में नहीं था। हां, उन्होंनेपाण्डुलिपि की तलाश को नया अर्थ ज़रूर दिया और देखते ही देखते बरसों गुज़र गये। कोलकाता से अमृतसर तककी यात्रा, एक जमी-जमाई गृहस्थी से खानाबदोशों सी ज़िन्दगी मुझे मिली और मेरे हाथों से जाती रही। देश की एकसीमा से दूसरी सीमा, ज़िन्दगी के तौर-तरीक़ों में भी उसी तरह का बदलाव लाते रहे। कभी-कभी लगता है कि यहपाण्डुलिपि की तलाश होती तो मैं क्या कर रहा होता?

और सच कहूं कि मैं एकदम नकली लेखक की ज़िन्दगी इन गुज़रे वर्षों में जीता रहा। लिखना तो उसी दिन से छूटगया था जिस दिन से पाण्डुलिपि की तलाश शुरू की थी। बरसों तक मेरे लेखक होने का जो लोगों के मन में भ्रमबना रहा, वह उसके पहले के लेखन का ही प्रभाव था। लोगों को सहसा मेरी कोई रचना दस, बारह, पंद्रह साल बादप्रासंगिक लगने लगती और उसकी चर्चाएं छिड़ जातीं। पहले ही प्रकाशकों को दी हुई पुस्तकें कई वर्ष बाद छपीं तोलोगों को लगा कि मैं खूब लिख रहा हूं। सच कहूं कि मैंने पिछले दस-बारह सालों में बहुत कम ही लिखा है।कभी-कभी तो मुझे इस बात पर पूरा यक़ीन सा हो जाता है कि मेरे भीतर लिखने वाला कोई और था जो अब नहींरहा। हालांकि कई बातें मन में घुमड़ती रहीं इस बीच और वे अपना एक रूपाकार ग्रहण करने के बाद फिर बिखरतीभी चली गईं। मैं उन्हें ज़िन्दगी की आपाधापी में कभी सफों पर उतार ही नहीं सका। कई बार तो लिखने बैठा ही नहींऔर कई बार छोटे-मोटे व्यवधानों ने लिखने से विरत कर दिया। इससे मेरे अनुभव-जगत में एक और नया सफ़ाजुड़ा जिसका सुखद या कई बार त्रासद सी अनुभूति मुझे हुई, जिसे किसी ख़ास परिभाषा में मैं नहीं बांध सका। कईघटनाएं मेरे मनोजगत में अपना एक विशिष्ट रूपाकार लेती चली गयीं और फिर वे तिरोहित हो गयीं, ठीकरचना-प्रक्रिया की तरह। वह रचना जो मन में ही रह गयी। उसकी अनुभूति उससे भी बेहतर थी, जो सफ़ों पर उतरजाती है, क्योंकि सफ़े पर उतरने के बाद अनुभूति को एक नया और स्वायत्त रूप लेते हुए मैंने देखा है जिस पर मेराभी कोई वश नहीं होता। रचना-प्रक्रिया किसी रचना को रचनाकार से भी स्वायत्तता ख़ुद--ख़ुद ले लेती है और वहख़ुद अपना रास्ता चुन लेती है। वह अपनी ज़िन्दगी जीती है और लेखक असहाय सा उसे देखता रह जाता है। लेखककई रचनाओं की रचना केवल उस बात को कहने की प्रक्रिया में कर डालता है, मगर वह बात कई बार उसी तक रहजाती है। हर बार रचना उसके कहे से अपने को स्वतंत्र कर लेती है। ऐसे भी लेखक हुए जिन्होंने पूरी ज़िन्दगी केवलवह कहने की कोशिश में लिखते हुए गुज़ार दी जो वे नहीं कह पाये। उन्होंने अनचाही कृतियां दीं और उन्हें अपनानाम दिया। उन्हें रचने का श्रेय लिया। प्रशंसा पाई और आलोचना सही। लिखने पर लिखने की ललक मन में रहजाती है और अपना रचनात्मक विस्तार लेती है। वह उतनी स्वायत्त नहीं होती। चूंकि वह मनचाही होती है इसलिएवह अधिक सम्मोहक बन पड़ती है।

मुझे तो कई बार लगता है कि जो इस प्रक्रिया से गुज़रने का आदी हो जाता है, वह लिखना छोड़ सा देता है। वहलिखने के बारे में केवल बता सकता है कि वह अमुक बात, अमुक कहानी या अमुक विषय-वस्तु पर लिखनाचाहता है। वह जब कहता है तो प्रभावित करता है। कई ऐसे लेखक आपको मिल जायेंगे जिनका लेखन किन्हींवज़हों से स्थगित हो गया, मगर बाद के दिनों में वे लिखने के मुद्दे को लेकर ता-उम्र घूमते रहे मगर लिख नहीं पाये।स्थगित लेखक की भी होते हैं जिनकी पहचान होनी चाहिए। इन स्थगित लेखकों ने जो कह कर दिया वह यदिलिपिबद्ध हो सकता या उन्हें किसी प्रकार रचनात्मकता में शुमार किया जाता तो वे बेहतरीन कृतियां होतीं। मैंने भीवही स्वाद चख लिया था। उसका आनन्द लेने लगा था। इस आनंद के कुछ कारण और भी थे।

एक तो यही कि यह जो सोचना भर था, वह मेरे जीवन के आवेग में कहीं भी बाधक नहीं बनता था। उसमें लेखकीयजीवन की वह त्रासद स्थितियां नहीं थीं, जिसमें एक लेखक रचना के क्षणों में जीवन से एकदम अलग होकर एकदूसरी दुनिया का प्राणी बन जाता है। लेखक एक प्रकार से अपने ही जीवन से निवार्सन झेलने को भी विवश होजाता है। यहां यह सुख था कि मैं निछक जीवन को उसकी समूची हलचलों में शरीक होकर जीता रह सकता था औरउसमें भी कुछ स्थितियों को अपनी कल्पना के अनुसार मनचाही भी बनाकर उसके आनन्द को में और इज़ाफा करलिया करता था। यहां तक की कई हताश कर देने वाली स्थितियों को भी मैं एक नाटक के दृश्य की तरह देखकरउससे उदासीन भी बना रह सका और कई बार सब कुछ ख़त्म होने वाली स्थितियों में तटस्थ होकर चल दिया, किचलो अब ख़त्म हुआ यह प्रसंग।
अब किसी और प्रसंग पर सोचें। इसमें जीवन और मनो-जगत का ऐसा घालमेल था कि मैं जीवन को उसकी समूचीसंवदेनशीलता से साथ जीने में सफल रहा। जिन परिस्थितियों से लोग-बाग आंखे चुराकर निकल जाना चाहते थे, जिन अप्रिय हालातों से वे बच कर निकल सकते थे मैं उन्हें चुनौती देता हुआ, उनके सामने खड़ा हो जाता था। उसेपूरी तल्ख़ी से महसूस करता था। कई बार तो अपमान के ऐसे प्रसंगों को मैंने न्योत डाला जिसका सामना करने कासाहस विरले ही कर पाते। मुमकिन है उसके बाद वे आत्महत्या तक कर गुज़रते। मैंने उन पलों को अपने जीवनमें पूरा सम्मान दिया है और अपमानित करने वाले भी मेरी निग़ाह में प्रिय बने रहे। मेरा रवैया देख मुझेअपमानित करने वालों को भी हैरत हुई। यहां तक की अपमानित करने वाले मुझसे शर्मिन्दा हो गये कई बार तोइतने हितैषी बने की मुझे वैसी दोस्ती अन्यत्र मिली।

खैर में मूल बात पर लौट आऊं कि मुझे इस बात का अब भय लगने लगा है कि कहीं वह खोई हुई पाण्डुलिपि मिल जाये। यदि वह मिल गयी तो मेरे लिए शायद ज़िन्दगी का सबसे उदास दिन होगा। मैं ज़िन्दगी में नाकामियों सेकभी उदास नहीं हुआ। हर नाकामी ने मुझे ज़िन्दगी के नये स्वाद दिये। मैंने जीने और सोचने का पुराना ढर्रा बदलाऔर अपनी ज़िन्दगी को कुछ नया सा देखने दिया और स्वयं उसे नये तरीके से देखने की कोशिश की। और कोशिशकी कि मैं भी अपनी ज़िन्दगी को कुछ नया लगूं। इस कोशिश के बारे में और उसकी वज़हों और उसके नतीज़ों केबारे में बाहर को कोई शख़स नहीं जान पाया मैं और मेरी ज़िन्दगी ही इसके राज़दार रहे। कुछ लिखने की वज़हसे उसकी आहट तक विचार की दुनिया के लोगों को नहीं लग पायी। मैं अपने अलमस्त ढंग से जीने के कुछ राज़दुनिया पर खोल दूं तो शायद दुनिया की नज़रों में एक पतित व्यक्ति माना जाऊं मगर मैंने अपनी ज़िन्दगी कोसमझा रखा था कि वह सब मेरे लिए करना कितना ज़रूरी था। मेरी ज़िन्दगी मेरे ख़याल से मुझे समझ सकी औरउसे भी मुझसे कोई गिला नहीं होगा कि मैं अमुक की ही ज़िन्दगी क्यों हुई। कई बार मुझे यह भी लगता है किदुनिया बराबर दो हिस्सों में बंटी हुई है। एक ऐसी दुनिया हर शख़्स की ज़िन्दगी में होती है जिससे वह कभी किसीसे साझा नहीं करना चाहता मगर वह एक से दूसरे तक पहुंचती अवश्य है, दबे पांव। हरेक को लगता है कि सिर्फ़वही और वही जानता है जीने के कुछ गुर जिनके बग़ैर ज़िन्दगी बेमज़ा हो जाये। मैं पहले ही बता दूं कि आप ऐसीकोई अपेक्षा मुझसे पालें कि मैं आपको अपने राज़ बता दूंगा। अलबत्ता आप मेरे तौर-तरीक़ों से अनुमान लेंइसकी सिर्फ़ पूरी छूट आपको है बल्कि मैं चाहूंगा कि आप ऐसा ही करें।

किसी भी रचना पर यक़ीन के साथ कुछ कहना पाठक की सबसे बड़ी लापरवाही मैं मानता हूं और उन्हें यहमासूमियत करने की सलाह कभी नहीं दे सकता। जब लिखने वाला ही यक़ीन के साथ नहीं लिख पाता तो उस लिखेपर कोई यक़ीन क्यों कर करे? जो लोग पूरे यक़ीन से कुछ लिखते हैं उन्हें उनके अलावा कोई और पाठक मिल जायेतो उसे में इत्तफाक़ ही कहूंगा। मैंने अपनी ज़िन्दगी में कभी भी किसी विश्वास को अपने आस-पास फटकने नहींदिया। सबसे ज़रूरी काम तो मैंने यह किया कि अपने बारे में किसी की किसी धारणा को पुष्ट नहीं होने दिया। मैंनहीं चाहता कि कोई किसी भी मामले में मुझ पर यक़ीन करे और छला जाये। दूसरों का विश्वास ऐसा बंधन होता हैजिसे तोड़ पाना हरेक के बूते का नहीं होता। इस बंधन से बचने का तरीक़ा मैंने सीखने की बहुत कोशिश की मगरलगातार विफल रहा। मैंने पाया कि लोग विश्वास करने की हड़बड़ी में रहते हैं और वे जल्द से जल्द किसी किसीनिष्कर्ष तक पहुंच जाना चाहते हैं। पता नहीं वे नतीज़ों पर पहुंच कर आख़िर पाना या चाहते हैं? और तो और वे एकतरह का विश्वास टूटने के फ़ौरन बाद उसके बारे में उसके विपरीत विश्वास करने को तत्पर रहते हैं। खैर... मुझ परविश्वास करने वालों ने जरूर धोखे खाये मगर मेरी आत्मा पर इसका कोई बोझ नहीं है कि मैंने किसी को धोखादिया। मैंने कभी अपने- आपको इस क़ाबिल बनाया ही नहीं कि किसी को कुछ दे सकूं। मैंने ज़िन्दगी भर लिया हीलिया है। हालांकि इस बात पर मुझे हैरत बराबर होती रही कि क्यों किसी को लोग बहुत कुछ यूं ही दे दिया करते हैं।मुझे कभी कहीं से कुछ हासिल होने की उम्मीद नहीं रही और ना ही मैंने उसके लिए बहुत सी कोशिशें ही की। इतनाज़रूर किया कि जिसकी ज़रूरत महसूस की उसके पास बेझिझक चला गया और जिस चीज़ की ज़रूरत महसूस हुईउससे वह मांग लिया। आपको शायद हैरत होगी कि मेरी इस मांग में नैतिकता का तो कई कतई शुमार नहीं रहा।कभी मैंने किसी से नियम को ताक पर रखकर सिफारिश करवाई तो कभी किसी से जरा सी जान-पहचान के बादहमबिस्तर तक हो लिया। कई बार तो मैं अपने प्रेम-प्रस्तावों के प्रति ज़रा भी गंभीर नहीं था लेकिन मेरे प्रस्ताव नेसामने वाले के जीवन में ऐसा तूफान खड़ा कर दिया कि मुझे एकायक स्थितियों को संभालने के लिए भाग खड़ाहोना पड़ा। यहां तक की रातों-रात शहर छोड़कर बग़ैर उससे मिले जो अपना भरा-पूरा परिवार, बाल-बच्चे पतिछोड़कर मेरे साथ जीने मरने तक का तैयार हो चुकी थी।

कई बार तो मैंने शरारतन तीन-तीन युवतियों को एक ही समय पर अलग-अलग स्थानों पर मिलने का समयदिया और आराम से घर में सोता रहा। फिर बहाने बनाता रहा कि मैं उनसे मिलने के लिए कितना आतुर था औरकितनी ही कोशिशों के बावज़ूद मैं उनसे नहीं मिल सका। कई बार तो एक ने दूसरी का पता मेरे चाहने पर भीखोज कर निकाल लिया और मुझे लगा कि इससे मुझे कम-से-कम एक से छुटकारा मिलेगा लेकिन उल्टा हुआऔर दोनों में और अधिक करीब आने की होड़ सी महसूस की। कई बार कंधे आंसुओं से तर हुए। बांहों में जकड़ाहुआ मैं यह तक भूल गया कि कौन है वह। वह क्यों रो रहा है, इसका पता होते हुए भी कि मैं ही वज़ह हूं, उसके साथरुदन में शामिल हो गया। रोने वाली की की समस्या का निदान मेरे पास नहीं था। केवल उसकी संवेदना में अपनीसाझेदारी कर सकता था। मैंने सांत्वना यूं दी है जैसे कि उसका दु: दूर होगा, उसके आंसुओं की वज़ह मैं नहीं कोईऔर हो। मैं जीवन में अपनी गतिविधियों के प्रति जितना ही अंगभीर बना रहा उतना ही लगा कि लोग मुझे विश्वाससे भरा-पूरा पाते हैं। यही वज़ह है कि मुझे ना सुनने का अवसर बहुत कम ही मिला। इनकार करने वाला अरसे तकलगातार सफ़ाई की मुद्रा में रहा और पश्चाताप में जलता रहा।

मां-बेटी दोनों से इश्क़ का चक्कर

यह भी हुआ कि किसी समय मां के प्रति आकृष्ट होने के बाद उसकी बेटी के प्रति आकषत हो उठा तो काफी उलझनों से गुजरना पडा। उन्हें भी और मुझे भी। आखिरकार बात वहां जाकर समाप्त हुई कि मां रत्ना और बेटी मोरा दोनों आपस में दोस्त बन गईं और मैं दोनों में से किसी का दोस्त नहीं रहा। दोनों जब भी अलग मिलीं उन पर मेरे दूसरे के प्रति आकर्षण की बात हावी रही और वे उसके कारण कभी भी सहज नहीं हो पायीं। हालांकि मेरे प्रति विकर्षण उनमें नहीं था। मेरे लिए दोनों की उपस्थिति में सहज हो पाना संभव नहीं हो पाता था सो मैंने उनके यहां जाना बेहद कम दिया। यहां तक की रत्ना ने भावुक क्षणों में अपने सारे कपड़े एक-एक मेरे सामने उतार डाले थे मगर उसी क्षण मुझे उसकी बेटी की याद आते ही वह बेहद गलीज़ सा लगा था। यह उस समय की बात है जब दोनों को एक दूसरे के बारे में पता नहीं था, पर मैं तो अनुभूति के स्तर पर इस संकट को महसूस कर ही रहा था।

हालांकि इसका आभास रत्ना को बाद में जाकर हुआ होगा जब बातें खुलकर सामने आ गयी थीं। उसने मुझे शरीर का सुख लेने वाला कीड़ा नहीं माना था, यह उसकी बात की बातों से जाहिर था। वैसे, मुझे उसके इस निष्कर्ष से कुछ सुखद सा लगा हो ऐसी बात नहीं है।

मैंने मोरा से एक बार कहा था कि व्यति को अपने जीवन में कुछ ऐसी खिड़कियां खोल कर रखनी चाहिए जिससे कभी दम घुटता महसूस हो सके तो वह सांस ले सके। मैं उसके जीवन में वैसी ही एक खिड़की खोलना चाहता हूं। क्यों यह कहूं कि उस समय तो मैं ख़ुद उसके लिए वह खिड़की बनना चाहता था, मगर शायद उसकी सांसों की घुटन की वजह ही साबित हुआ। रत्ना के साथ किया गया व्यवहार मेरे लिए वैसी ही खिड़की साबित हुआ। उसकी बेटी की निग़ाहों में मैं उसकी मां के साथ वह रिश्ता कायम कर चुका था, जिसे वह पतित मानती थी। जिसके लिए वह चाहकर भी मेरे साथ तैयार न हो सकी। मेरी बेवकूफ़ी इतनी भर थी कि मैंने किन्हीं नाजुक क्षणों में उसके सामने यह कनफेस कर बैठा था कि उसकी मां से भी मेरे नाज़ुक रिश्ते रहे हैं। हालांकि सदाचारी बनने की ख्वाहिश मेरे मन में कभी नहीं रही फिर इस तरह की कमज़ोरी क्यों आयी यह नहीं कह सकता। या किसी और क़िस्म की लज़्जत मैं लेना चाहता था? मोरा ने अपने-आपको इसलिए भी पीछे खींच लिया क्योंकि मेरा उसकी मां से जुड़ा होना उसके लिए एक नैतिक संकट बन गया था। उसका एक कारण तो उसकी उम्र थी जिसमें नैतिकता के सवाल व्यक्ति तो ज़्यादा मथते हैं, हालांकि उसका नैतिकता से केवल वायवीय परिचय ही होता है। वह किसी नीति को समझने में किसी हद तक विफल ही रहता है मगर अपनी समझ पर उसे गुमान अधिक होता है। उसे पता नहीं होता कि जिन बातों को वह सुनता रहा है वे किस कदर अव्यवहारिक होती हैं तथा जीवन की सचाइयों से चूर-चूर होते रहना ही उसकी नियति होती है। नैतिकता के बारे में अपनी जमी- जमाई धारणाओं के टूटने को वह अपनी टूटन के रूप में आने वाले जीवन में देखता है और दुःखी होता रहता है। बहुत बाद में उसे पता चलता है कि जिसका टूटना उसे अपने ही अस्तित्व के टूटने की तरह लगता रहा वह दरअसल उसका टूटते रहना ही उसकी नियति है। जीवन का दोहरापन यही है। हम जो कहते सुनते हैं उसे जीने के क्रम में कतई नहीं मानते। जिस सच की प्रशंसा करते हम नहीं थकते दरअसल उस सच को गढ़ने में तमाम झूठों का योगदान रहता है, जिसके बग़ैर कोई सच, सच की मर्यादा ले ही नहीं पाता और ना ही सच के तौर पर कभी स्थापित ही हो पाता है। सच ऐसी स्थापत्य कला है जिसकी स्थापना में सबसे ज़्यादा झूठ लगता है। यदि किसी सच को स्थापित करने की विवशता न रहे तो झूठ अपने आप कम हो जायें।

..तो मैं मोरा के मन में उपजे संकट को दूर करने में काफी अरसे तक विफल रहा। बरसों बाद जब दो बच्चों की मां बन चुकी थी तब जाकर वह किसी प्रकार से उबर पायी थी। वह भी इसलिए कि अपने व रत्ना के जीवन से मेरे जाने के बाद उसने रत्ना को किसी और पुरुष के साथ देख लिया था वह भी चंद सुविधाओं के लिए। जब उसकी कथित नैतिकता से उसके मुक्त होने का मुझे आभास हुआ या साफ़ कहूं तो उससे ही सुना तो मुझे अचरज नहीं हुआ। हां, उसके मनोवेग का चाहकर भी मैं सम्मान नहीं कर सका। वह पराजित सी थी। उसे यह लगने लगा था कि मेरा उसके जीवन से उस वक्त चले जाना उसके जीवन की सबसे बड़ी भूल थी। यदि उसने रत्ना से बने सम्बन्धों और फिर उससे मेरे मुंह फेर लेने पर यक़ीन किया होता तो शायद उसका जीवन वह न होता जो आज है। उसने मेरे कहने के बावज़ूद वैसी कोई खिड़की नहीं खोली थी जिससे वह सांस ले सके और घुट रही थी। उसे लगा था कि वैसी खिड़कियां बनाने पर सदमें झेलने होते हैं।

उसे लग रहा था कि काश उसने वह खिड़की खुली रखी होती। मगर नहीं। उसने अपनी कथित नैतिकतावादी धारणाओं के आग्रह पर वैसा ही जीवन जिया जैसा एक भारतीय नारी जीती है। पति सुधीर की हर बात मानी और ख़यालों तक में किसी और को प्रवेश नहीं करने दिया।

अच्छी-खासी पढ़ाई करने के बावज़ूद वह घर मैं क़ैद हो गयी क्योंकि सुधीर का कहना था कि कमज़ोर लोगों की पत्नियां ही घर से बाहर काम पर जाती हैं। ऐसी पत्नियों के पौरुष में कमी होती है। उसने सुधीर का कहना माना। दो बच्चों की मां बनी। सुधीर की कमाई और चरित्र पर उसने कभी शुबहा नहीं किया। आगे चलकर उसे पता चला कि इन्हीं दोनों पर सेंध लग चुकी है। सुधीर ने न सिर्फ़ बाक़ायदा एक विधवा से अरसे से ताल्लुक बना रखा था, बल्क़ि उसे एक किराये के कमरे में रख छोड़ा था। उसके इकलौते बेटे को अपना नाम तक देने को तैयार था। उसका पूरा खर्च भी सुधीर ही उठाता रहा था। गृहस्थी जैसे बंधे शब्द से मोरा की आस्था बुरी तरह से ख़त्म हो चुकी थी। वह यह सब कुछ तब तक चुपचाप ढोती रही थी, जब तक अरसे बाद उससे मेरी मुलाक़ात नहीं हुई थी।

मुझसे मिलने के बाद मोरा ने नए स्वप्न देखने की कोशिश की थी, लेकिन उसकी कड़ियां बीच से काफ़ी ग़ुम थीं। मेरा उससे पिछला सम्बन्ध अब एक नया आकार लेता जा रहा था। उसने ख़ुद अपने जीवन को बदलने और अपने ढंग से जीने की पहल की थी। मैं तो बहाना भर बना था। यह ज़रूर था कि उसने सुधीर से जिस तरह से पीछा छुड़ाया था वह आसान नहीं था। उसका पति उसे किसी भी क़ीमत पर छोड़ने को तैयार नहीं हो रहा था। तमाम तक़रार के बावज़ूद। वह सुधीर से मार खाती रही और आखिरकार उसने उसके साथ रहने से इनकार कर दिया।

वेदना और अवसाद के क्षणों में टूटी मोरा ने मेरी संवेदना का सम्बल पाने की नीयत से सुधीर द्वारा बेल्ट से की गयी पिटाई के निशान दिखाये थे। वह भूल गयी थी कि ऐसा करने में वह मेरे सामने लगभग अनावृत हो गयी थी। मुझे भी यह ख़याल नहीं रहा।

मैं कितनी ही देर तक उसे यूं अपनी आगोश में लिए उसके आंसुओं को पोंछता रहा था। वह छोटी बच्ची की तरह देर तक सुबकती रही और मैं सांत्वना देने के लिए अपनी अंगुलियों से उसके होठों को सहलाता रहा। उसकी बिखरी लटों को संवारता रहा। और फिर यह हुआ कि खुद उसने अपनी परस्थियों को चुनौती दी। सुधीर के खिलाफ़ थाने तक गयी और मामला दायर किया। कुछ घंटे हवालात में गुज़ारने के बाद सुधीर के होश ठंडे हो गये। पुलिस ने बाक़ायदा चेतावनी दी थी कि वह उस घर में न फटके जहां उसकी पत्नी रहती है। मोरा ने दौड़धूप शुरू की और आखिरकार उसे एक संस्थान में जूनियर हिंदी अनुवादक की नौकरी मिल गयी। अब वह आज़ाद ख़याल महिला के तौर पर जानी जाने लगी थी। औरतों के चल रहे आंदोलनों से उसका गहरा रिश्ता हो गया था। स्त्री आंदोलनों में उसकी भागीदारी का यह आलम था कि औरतें अब मुसीबत में उससे दिशा-निर्देश लेने पहुंचने लगी थीं। यहां तक कि उसने एक बार अपनी नौकरानी पर ज़ुल्म करने वाले उसके पति को उसी के हाथों पिटवा दिया था। यह उसका नया रूप था।

इधर सुधीर ने भी अपना रूप बदल लिया था। वह अपने अपने वैवाहिक जीवन में गुज़ारे गये नाज़ुक लम्हों को याद दिलाने और अपने वैवाहिक जीवन को टूटने से बचाने की दुहाई देने लगा था। उसने यह भी वादा किया था कि वह उस महिला को छोड़ देगा और कोई वास्ता नहीं रखेगा, जिसको लेकर उसने एक समानांतर ज़िन्दगी बसा रखी थी। अब मोरा इसके लिए तैयार नहीं थी। उसका कहना था कि आखिरकार एक महिला को बीच मझधार छोड़कर सुधीर को भागने की कोई आवश्यकता नहीं है। जब सुधीर का यह दांव न चला तो उसने बच्चों को वास्ता देना शुरू किया। वह अक्सरहा बच्चों से मिलने के बहाने घर जा धमकता। घर पर मिलने से मना करने पर वह बच्चों से मिलने स्कूल पहुंचने लगा। वह जान गयी थी कि यह सुधीर के हथकंडे हैं। वह अपने जीवन में कुछ भी खोने को तैयार नहीं था। उसे वह जीवन चाहिए था जिसमें पत्नी भी हो और वह भी। आखिरकार मोरा ने वह निर्णय लिया जिसका अनुमान मैंने भी नहीं लगाया था। एक दिन वह अपने दोनों बच्चों और घर में सुधीर के बचे तमाम क़ीमती सामान को ट्रक पर लादे उसके उस घर पर पहुंच गयी जहां वह अब महिला के साथ रहता था। मोरा ने सामान और बच्चे वहीं छोड़ दिया और साफ़ हिदायत दी कि वह अब वे तमाम सम्बंध व हिसाब साफ़ कर चुकी है। अइंदा उससे कोई ताल्लुक़ न रखे।

मोरा का प्रस्ताव और मेरी बीवी

इसके बाद तो उसने एक अहम फ़ैसला और किया था। मुझसे उसने सीधे-सीधे शादी का प्रस्ताव रखा था लेकिन मैंने स्वीकार कर लिया कि मैं अपनी पत्नी को अपने सम्बंधों की सज़ा नहीं दे सकता। उस मासूम को सज़ा देने का कोई मुझे कोई हक़ नहीं। मैं और वह प्यार करते हैं तो उसके लिए हमें सोचना होगा कि हमें अपने सम्बंधों का निर्वाह कैसे करना है। उसमें मेरी पत्नी दंडित क्यों हो?

मैं आपको बता कि मैं बाकायदा शादीशुदा हूं वरना आप सोचेंगे कि यह मेरी पत्नी बीच में कहा से टपक पड़ी। कॉलेज के दिनों में मेरी जो भी महिला मित्र बनी उसमें मुझे ऐसी कोई खा़सियत नज़र ही नहीं आयी जिससे कि मैं पूरी उम्र का रिश्ता जोड़ने की सोच सकूं। पिता ने अपने बचपन के दोस्त की बेटी से रिश्ता लगभग तय ही कर डाला था लेकिन मुझे या फितूर सवार हुआ कि मैं उसे देख आया और फिर इनकार कर बैठा। उसकी शक्ल-सूरत कुछ ख़ास बुरी नहीं थी लेकिन उसमें आकर्षित करने लायक भी मुझे नहीं मिला था। फिर तो मेरे नानाजी ने यह जिम्मेदारी संभाल ली। और जो लड़की उन्होंने पसंद की थी मैंने उसकी तस्वीर भर देखी थी फिर हां कर बैठा था। अबकी बार मेरा साहस न था कि मैं फिर पुरानी कवायद में शामिल होता। लेकिन यह इत्तफाक़ ही कहा जायेगा कि उसे बचपन से आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचने का शौक़ था। यह शौक़ उस समय तक बरकरार रह गया था जब वह शादी के बाद मेरे साथ कोलकाता आयी थी। उन दिनों भी मुझे अपने से फ़ुरसत नहीं हुआ करती थी। घर में हम दोनों बग़ैर एक-दूसरे की संवेदना को पहचाने और उस पर बग़ैर ध्यान दिये इतमीनान से रहने के अभ्यस्त होते जा रहे थे। उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति मैं अपनी ज़िम्मेदारी स्वीकार कर चुका था और वह मेरी आवश्यकताओं की पूर्ति को अपना कर्तव्य मानती थी। शायद इससे अधिक हमने एक-दूसरे से कुछ पाना भी नहीं चाहा था। उसका कारण किसी हद तक मैं था जो अपनी पहले से बनी-बनाई दिनचर्या तथा यार-दोस्तों और अपने लिखने-पढ़ने की दुनिया में तल्लीन रहता था। मुझे अपने-आप में सिमटा पाकर उसने मुझसे कोई अपेक्षा पालीं ही नहीं। वह संतोष करने वाली, प्रकृति से हंसमुख मगर शांत स्वभाव की थी। उसने अपने-आपको मेरे अनुसार ढालने की पूरी कोशिश की थी। मैंने भी अपने व्यवहार से कभी उसे कष्ट देने की कोशिश इसलिए भी नहीं की क्योंकि उसने अपने-आपको एक तरह से मेरी सेवा में खपा दिया था। उसकी और किन्हीं ख़ूबियों के बारे में न तो उसने कभी बताया और ना ही मैंने ध्यान दिया। हमें एक-दूसरे की जो फ़िक्र थी उसकी सीमाएं इन्हीं के इर्द-गिर्द लगभग दो साल तक रही।

फ़ुरसत के क्षणों में वह तरह-तरह के चित्र बनाती रहती। उन्हें वह हिसाब सहेज कर रखती जाती। मैंने उस पर कभी इसलिए भी ध्यान नहीं दिया कि वह खाली बैठने की तुलना में वह यूं ही दिल बहलाती तो या बुरा है? उसमें परिवर्तन उस समय आया जब मेरे एक बुर्जुग चित्रकार मित्र मुबारक़ एकाएक मेरे घर आये। उनकी नज़र एकबारगी अंजू के चित्रों पर गयी तो उन्हें यह जानकर हैरत हुई कि अंजू इतनी अच्छी चित्रकार है यह बात मैंने पहले उन्हें क्यों नहीं बतलाई। उनकी बातों पर मैं ख़ुद शर्मिन्दा था कि मेरा ध्यान इस पर कभी क्यों नहीं गया। सचमुच उसके चित्रों में ऐसी बात थी जो अपनी ओर किसी का ध्यान आकृष्ट कर सकती थी।
मुबारक़ ने वस्तु-स्थिति जानने के बाद न सिर्फ मुझे बुरी तरह फटकारा बल्कि उसने अंजू को एक अच्छे चित्रकार की संभावनाओं से लैस बताया। मुझे पहली बार लगा था कि अंजू भी कलाकार हो सकती है क्योंकि मुबारक़ ज़ल्दी किसी की तारीफ़ करने वालों में से कभी नहीं रहा। वह न सिर्फ मुंबई, दिल्ली की प्रदर्शनियों में अपनी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी कर चुका था बल्क़ि फ्रांस में भी उसकी पेंटिग्स अच्छी खासी क़ीमत में बिकीं थीं। वह पेंटिंग की दुनिया का उभरता हुआ सितारा था। जिन पेंटिंग्स को कभी वह पंद्रह सौ रुपये में नहीं बेच पाया था, उसे वह तीन-तीन लाख में बेच पाने में क़ामयाब रहा था।

उस दिन के बाद से मुबारक़ की दोस्ती मेरे बदले अंजू से हो गयी। दोस्ती या अंजू उसकी लगभग शिष्या हो गयी। पेंटिंग के लिए आवश्यक वस्तुएं ख़रीदीं गयीं। तैल-चित्रों के लिए कैनवास आदि का भी प्रबंध हो गया। अंजू की ज़िन्दगी अपनी रफ़्तार से भागने लगी जिसमें मेरा बहुत कम योगदान रहा। यह कहूं कि मैंने इतना भर सहयोग दिया कि मैंने उसकी ज़िन्दगी के बदले स्वरूप में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया। अब वह ज़िन्दगी के अपने माने खोजती रही और मैं अपने। उसने मेरी एक खास क़िस्म की आवारगी जो बाद के दिनों में पाण्डुलिपि की तलाश से शुरू हुई उसमें बहुत दख़ल नहीं दिया, जिसके लिए मैं मन ही मन उसका आभारी रहा। शायद उसके व्यक्तित्व का ही यह आकर्षण था कि माह दो माह बाद दूसरे शहरों और दूसरे व्यक्तियों में रमा, उलझा मैं भाग-भाग कर उसके पास आता रहा। वह हर बार वह कुछ नयी लगती। कभी तरोताज़ा कभी बिखरी-बिखरी सी।


पेंटिंग की दुनिया में उसकी पहचान बनने लगी थी। उसे पेंटिंग का शौक भले रहा हो और उसके लिए आवश्यक कल्पनाशीलता भी, लेकिन व्यावहारिक कौशल नहीं था, जिसकी जानकारी उसे मुबारक़ से मिली थी। पेंटिंग के बारे में मुबारक ने कई क़िताबें भी उसे लाकर दी थी और फिर तो वह कोलकाता में लगने वाली प्रदर्शनियों के चक्कर लगाने लगी थी। इन दिनों एकाएक शहर में पेंटिंग का क्रेज बढ़ गया था। जो चित्रकार दस बीस हजार में नहीं बिक रहे थे वे अब लाखों में खेलने लगे थे। यहां पेंटिंग का एक अच्छा बाज़ार तैयार हो गया था। कोलकाता के चित्रकार विदेशों में अपना धाक पैदा करने में लग गए थे। ऐसे लोगों को भी एक वर्ग पैदा हो गया था जो बाक़ायदा पेंटिंग का व्यापार करने लगा था। इस बाज़ार में हालांकि सबका प्रवेश मुमकिन नहीं था। चूंकि मुबारक़ उसी दुनिया में पैठा हुआ था, सो अंजू को भी उसमें जगह मिल गयी थी और उसे बाज़ार में प्रवेश के लिए लम्बा संघर्ष नहीं करना पड़ा था। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि नागपुर और फिर अमृतसर से जब कोलकाता लौटा तो वह दूसरे शहरों में अपनी पेंटिंग एक्जीबीशन में व्यस्त थी और मुझे उसका चार-छह दिन बेसब्री से इंतज़ार करना पड़ा था। अमृतसर में तो उसने फ्रांस पहुंचकर फ़ोन किया था। उस दिन फ्रांस में उसकी पहली पेंटिंग बिकी थी सो, वह खासी उत्तेजित और प्रसन्न लग रही थी, अपनी आवाज़ से। मुझे अच्छा लगा था कि उसने अपनी खुशी में मुझे भी शरीक़ होने लायक समझा था। वरना मैंने पुरस्कार आदि पाने पर भी कभी उसकी चर्चा उससे नहीं की थी और ना ही कभी फ़ोन आदि पर उसके बारे में बताया था। मेरे लिए खुशी की बात यही थी कि उसने अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व की तलाश कर ली थी। वह आर्थिक तौर पर मुझ पर निर्भर नहीं थी। यह वज़ह भी थी कि मैं यायावर किस्म की ज़िन्दगी जीने के लिए अंजू की तरफ़ से भी स्वतंत्र कर दिया गया था। उल्टे कभी हाल-चाल पूछने के लिए मैं फ़ोन करता तो वह यह पूछना नहीं भूलती थी की पैसों की ज़रूरत तो नहीं है। बेहिचक कहूं-अमृतसर में मैंने दस हज़ार रुपये एक बार मंगवाए भी थे। मुझे वहां रिपोर्टिंग के लिए स्कूटर की ज़रूरत महसूस होने लगी थी। वहां उस तरह की सिटी बसें नहीं थी जैसी कोलकाता में। पैसे कुछ कम पड़ गये थे। उसने फ़ौरन भेज दिया था। मैं आपको बताता ही भूल गया कि शुरूआत के दिनों में अपने नानाजी का ट्रांसपोर्ट का धंधा मुझे कोलकाता में संभालना पड़ा था। उसी की वज़ह से मैं शुरू-शुरू में कोलकाता पहुंचा था।
मुंबई से पढ़ाई करने के बाद। मेरे पिता वहीं मुंबई में नौकरी करते थे और रिटायर होने के बाद भी उन्हें मुंबई इतनी रास आ गयी कि वहीं रहने का फैसला कर लिया था। नानाजी की मौत के बाद उनका ट्रांसपोर्ट का कारोबार अपनी लापरवाहियों और लिखने- पढ़ने के शौक़ के फेर में डुबोने के बाद मुझे पत्रकारिता ही वह क्षेत्र लगा जिसमें मैं कुछ करना चाहता था। मैने उसी में रमने की कोशिश की। पत्रकारिता के क्षेत्र में मुझे नौकरियों की किल्लत कभी महसूस नहीं हुई।
काम जानने के बाद कभी भी मैं पूरे इतमीनान से एक नौकरी यूं छोड़ कर दूसरी पकड़ लेता था जैसे कि वह पहले से तय हो। किसी में कुछ कम मिलता किसी में कुछ ज़्यादा लेकिन और कोई परेशानी नहीं थी। हिन्दी पत्रकारिता में अंग्रेज़ी ठीक-ठाक अनुवाद कर लेने वाले की वेकेंसी हमेशा रहती है, इसका मुझे पता चल चुका था। पत्रकारिता भी वह वज़ह बनी कि मेरे अनुभव क्षेत्र और संपर्कों का दायरा बढ़ता गया था, और दूसरे लोग यूं ही इज्ज़त की निग़ाह से देखते थे।