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आकाशगंगा प्रकाशन,4760-61,23अंसारी रोड,दरियागंज, नयी दिल्ली-110002 मूल्य-150 रुपये

Friday, November 11, 2011

समाज के स्थापित मूल्यों से बार-बार टकराता उपन्यास




पुस्तक समीक्षा
-बद्री नाथ वर्मा
पुस्तक का नाम- कला बाज़ार/ उपन्यास/लेखक-अभिज्ञात/ प्रकाशक-आकाशगंगा प्रकाशन,4760-61,23अंसारी रोड,दरियागंज, नयी दिल्ली-110002 मूल्य-150 रुपये

'कला बाजार' जैसा कि नाम से ही आभास होता है कि कला आज पूरी तरह से बाजार की जकड़ में आ गयी है। वह पूरी तरह से बाजारू वस्तु बन गयी है, और इस मुद्दे को बड़ी ही शिद्दत से उठाया है उपन्यासकार अभिज्ञात ने अपने उपन्यास कला बाजार में । आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह उपन्यास काफी कुछ सोचने को मजबूर करता है।
पश्चिमी जीवनशैली के अंधानुकरण का परिणाम यह हुआ है कि सृष्टि की सबसे सुन्दर रचना मानी जाने वाली नारी आज बाजार की वस्तु भर बनकर रह गयी है। सबसे बड़ी बिडंबना तो यह है कि खुद नारी को भी इससे गुरेज नहीं है। उसे अपनी देह की शक्ति का एहसास हो गया है इसलिये वह अपने देह को हथियार बनाकर आगे बढ़ने की आपाधापी में लगी हुई है। हालांकि यह एक ऐसी अंधी गली है जिसका कोई ओर छोर नहीं नजर आता । ग्लैमरस दुनिया के पीछे की काली सच्चाइयों को परत दर परत खोलता अभिज्ञात का यह उपन्यास पठनीय तो है ही संग्रहणीय भी है। कसी हुई कथावस्तु हर कदम पर पाठकों को झकझोरती है। पुस्तक इस मायने में कामयाब है कि यह पाठक से अपना तारतम्य बनाये रखती है। कसी हुई कथावस्तु उपन्यास का सकारात्मक पक्ष है। प्रथम पृष्ठ से ही यह पाठक को बांधे रखने में पूरी तरह से सक्षम है। पढ़ते समय कहीं भी यह उबाऊ नहीं लगता। भाषा सहज और सरल है। लेखक की शब्दों पर पकड़ उपन्यास में जगह-जगह परिलक्षित होती है। कम शब्दों में अपनी बात कह देना लेखक का वैशिष्ट्य है।
चार खण्डों में बंटा उपन्यास आकार में छोटा होते हुए भी विस्तृत फलक लिए हुए है। इसके हर पात्र अपनी भूमिका की तलाश में समाज के स्थापित मूल्यों से टकराते से प्रतीत होते हैं । इस टकराव में वे टूटते हैं, बिखरते हैं किंतु वे इससे हार नहीं मानते बल्कि पूरी ऊर्जा के साथ फिर उठ खड़े होते हैं। मूल्यों की अपनी अलग ही परिभाषा गढ़ते हैं। इस कृति में नारी मन की गहराइयों को अंजू के माध्यम से जिस खूबसूरती से उकेरा गया है वह काबिलेतारीफ है। यह लेखक की एक अतिरिक्त उपलब्धि होने के साथ ही नारी मन की समझ का परिचायक भी है। उन्होंने नारी मन की बड़ी बारीकी से इस कृति में पड़ताल की है। दस साल पहले लिखे बीस सफे के एक एकांकी नाटक की खोयी पांडुलिपि की तलाश से शुरू हुआ कथानक अपने में कई कथाओं को समेटे हुए है। पांडुलिपि की तलाश के दौरान कई कहानियां जन्म लेती हैं। हर कहानी पाठक के बीच जुगुप्सा बनाये रखती है।
अचानक 90 के दशक में भारतीय सौन्दर्य को वैश्विक मान्यता मिलने जैसी घटनाएं बाजारवाद का जीता जागता नमूना है। स्त्री देह को प्रधानता देने वाले बाजार में खुद स्त्री भी बिकने को तैयार है। उससे इसे जरा भी गुरेज नहीं है कि ग्लैमरस की दुनिया का हिस्सा बनने के लिए उसे क्या कीमत चुकानी पड़ती है । जिस चतुराई व उदात्तता से पूंजी लोगों को अपने मोहपाश में बांध रही है, उसकी गहरी पड़ताल कला बाजार में की गयी है।
उपन्यास की एक नारी पात्र का यह कथन कि ' दुनिया में सदियों से नारी जिस्म से बढ़कर कोई आकर्षण पैदा नहीं हो सका है। मनुष्य की सारी प्रगति औरत का तोड़ नहीं गढ़ पायी है। इस बाजारवाद के दौर में भी महंगी से महंगी वस्तु भी औरत से कम आकर्षक है। उसी का नतीजा है कि हर वस्तु को बेचने के लिए औरत की जरूरत होती है। वस्तु के साथ औरत का होना औरत की हैसियत को दर्शाता है। हर दौर का कलाकार उसी औरत के जिस्म को अपनी कलाकृतियों में अंकित करता रहा जो पहले भी अंकित हो चुका था मगर हर बार एक नयी चमक लोगों को दिखी। यह ऐसा आकर्षण है जो कभी खत्म नहीं होने वाला है। सभ्यता के विकास के जितने भी दौर रहे उसमें औरत ही हावी रही, वही केन्द्र में रही। वह पाषाण काल हो या यह इक्कीसवीं सदी। केन्द्रीयता औरत को मिलेगी। ' या फिर यह कहना कि ' पुरुष ने औरत को उसकी असली शक्ति को भुलाने की तमाम साजिशें रची हैं। उसी का नतीजा है कि कई औरतें गुलामी की जिन्दगी जी रही हैं। वरना औरत तो राज करने के लिए बनी है और पुरुष गुलामी के लिए। ' ग्लैमरस दुनिया का हिस्सा बनने को आतुर नारी की उस सोच को प्रतिबिंबित करता है जो इसके लिये हर कीमत चुकाने को तैयार है। चाहे वह स्थापित मान्यताओं के अनुसार अनैतिक ही क्यों न हो। जीवन में सफलता पाने के लिए यदि सीढ़ी के रूप में देह के इस्तेमाल की भी जरूरत होती है तो उसे इससे भी गुरेज नहीं है। उसे अपनी देह की शक्ति का एहसास है। वह इसे अपनी कामयाबी का सीढ़ी बनाकर उस चमक दमक का हिस्सा बनना चाहती है जिसे पूंजीवाद ने जन्म दिया है।
लेखक चूंकि पत्रकारीय पेशे से जुड़े हुए हैं इसलिए वे इस पेशे में घुस आयी बुराइयों व इसके फरेब से भी बखूबी परिचित हैं। उनकी कलम इस पर भी खूब चली है। उपन्यास में कभी मिशन समझी जाने वाली पत्रकारिता के धंधा बन जाने पर बेबाक टिप्पणी की गयी है। समाज में आये बदलाव या यूं कहें कि सामाजिक पतन का असर पत्रकारिता पर भी पड़ा है। कभी मिशन समझी जाने वाली पत्रकारिता अब मिशन न होकर बाकायदा अन्य व्यवसायों की तरह ही यह भी एक व्यवसाय बन गया है। उपन्यास के एक पात्र हरदीप का यह कथन कि इस क्षेत्र में कोई अपनी प्रतिभा के बल पर कायम तो रह सकता है लेकिन तरक्की नहीं कर सकता। यह तल्ख और बेबाक टिप्पणी आज की पत्रकारिता की सच्चाई बयान करती है। अपवादों को यदि छोड़ दिया जाय तो दरअसल हरदीप जैसे चालू टाइप लोग ही आज सफल ! हैं। ऐसे लोग पत्रकारिता के नाम पर अपनी पहुंच व संबंधों के बूते मजे लूट रहे हैं।
उपन्यास में कहीं भी लंबे चौड़े भाषण या बड़े बड़े दावे नहीं हैं लेकिन तिलमिला देने वाले कटाक्ष जरूर हैं। देश विभाजन की त्रासदी का कात्याल के माध्यम से लेखक ने जो भयावह चित्रण किया है वह उनकी सशक्त लेखनी को प्रमाणित करती है। बंटवारे के प्रसंग में यह उल्लेख कि देश विभाजन कर अपना हिस्सा चाहने वालों को औरत की देह से भी हिस्सा क्यों चाहिए था। नारी को भोग्या समझने वाली पुरुष मानसिकता पर करारा प्रहार है।
कला बाजार अपने रचना-शिल्प, कथन और कहने की भंगिमा की उत्कृष्टता के कारण पाठकों पर अपना प्रभाव छोड़ने मे सफल है। रचना में सहज-सरल शब्दों का चयन काबिलेतारीफ है। घटनाक्र के ब्यौरों को इतने संतुलित ढंग से दिया गया है कि वे कहीं भी मायूस नहीं करते। आधुनिकता की होड़ में छीजते नैतिक मूल्यों को जिस सादगी से लेखक ने शब्द दिये हैं वे उनकी विशिष्टता दर्शाते हैं। उपन्यास को पढ़ते समय चीजों को समझने, देखने का नया नजरिया विकसित होता है।



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