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Friday, December 2, 2011

ग्लोबलाइजेशन के दौर में कला बाज़ार


-अश्विनी कुमार
समीक्षा
  •  सम्पर्क-भारतीय भाषा परिषद, 36 ए, शेक्सपियर सरणी, कोलकाता-700017

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कला बाज़ार दरअसल कपोल गल्प नहीं बल्कि यह वह सच्चाई है जिससे हम सभी खासकर महानगरीय सभ्यता में रहने वाले लोग अक्सरहा टकराते हैं। ग्लोबलाइजेशन ने दुनिया के बाज़ार को जिस प्रकार बदला है और लगातार बदल रहा है वहां अक्सर बाज़ार का दबाव हर क्षेत्र में बढ़ा है। जिस दौर में सब कुछ बिकता है वहां कला के बाज़ार की संभावनाएं प्रबल हो उठती हैं और यह किसी हद तक स्वाभाविक भी है। बस बेचने की कला आये तो सब कुछ बिक सकता है। और ग्लैमर की दुनिया में हुस्न के जादू की ऊंची कीमत लग सकती है। कला बाज़ार उपन्यास के लेखक अभिज्ञात के शब्दों को उधार लेकर कहें तो- जिस्म भी हथियार है। तभी तो उपन्यास में आयी एक पात्र रीता लालवाणी से रीता तायवाला बन जाती है सिर्फ़ इसलिए कि लालवाणी सरनेम ग्लैमर की दुनिया से मेल नहीं खा रहा था और बाज़ार में वह अपनी अच्छी क़ीमत नहीं लग पा रही थी।
आत्मकथा शैली में लिखा यह उपन्यास इसलिए भी महत्त्वपूर्ण दिखता है कि हरेक पात्र बाज़ार के साथ चलना चाहता है। यहां तक कि लेखक के रूप में उपस्थित प्रतिनिधि पात्र की पत्नी अंजू भी। उपन्यास की शुरुआत नाटक की पाण्डुलिपि की खोज से प्रारम्भ होती है। और अन्त भी दिलचस्प है क्योंकि पाण्डुलिपि अंजू ही फाड़कर फेंक देती है लेकिन इतना ज़रूर हुआ कि इस पाण्डुलिपि की खोज कई दिलचस्प पात्रों को सामने लाती है और ये पात्र मौजूदा समय पर अपनी सार्थक टिप्पणियों के साथ उपस्थित होते हैं। इसी क्रम में लेखक रत्ना और मोरा जैसे पात्रों से जुड़ता है जो मां बेटी हैं और लेखक दोनों के प्रति अपने मन में आकर्षण महसूस करता है। एक और पात्र मोरा है जिसकी मज़बूरी कहिए या नियति बाज़ार में टिके रहना चाहती है। एक ऐसे बाज़ार में जहां ग्लैमर की चकाचौंध है। कथानायक की पत्नी अंजू पेंटिंग की दुनिया से ताल्लुक रखती है और वह क्रमशः बाज़ार का हिस्सा बनती चली जाती है। कामयाब होने और पेंटिंग की दुनिया में बिकने के लिए वह धर्म का इस्तेमाल भी करने से गुरेज नहीं रखती। वह ऐसी पेंटिंग्स ही बनाती है जिसकी बाज़ार में अच्छी कीमत मिलने की संभावना होती है। धर्म से लेकर जिस्म तक वह बाज़ार को ध्यान में रखकर पेंट करती है।
उपन्यास में लेखक ने स्त्री के दर्द को कई रूपों और स्थितियों में व्यक्त किया है, यहां तक कि समलैंगिकता के मुद्दे भी इसमें शामिल हैं। भारत-पाकिस्तान के विभाजन के दौरान स्त्री की स्थिति को भी इस उपन्यास में तल्खी से उभारा गया है। इस उपन्यास में एक तरफ नारी का जिस्म हथियार है जिसके बूते वह सफलता की सीढ़ियों चढ़ने मे कामयाब होती है तो दूसरी तरफ़ वह जिस्म के मोर्चे पर शोषित है। उपन्यास के एक पात्र के जरिए कहलाया गया है- जिस्म छिपाने नहीं दिखाने की चीज़ है। वह बंद कमरे में दिखाया जाये तो उसकी कोई क़ीमत नहीं।
एक अन्य प्रसंग में भी नारी की स्थिति से जुड़ा एक संवाद उल्लेखनीय है-मैं यह भली-भांति जानती हूं कि दुनिया में सदियों से नारी जिस्म से बढ़कर कोई आकर्षण पैदा नहीं हो सका है। इस बाज़ारवाद के दौर में महंगी से महंगी वस्तु भी औरत से कम आकर्षक है।...हर दौर का कलाकार उसी औरत के जिस्म को अपनी कलाकृतियों में अंकित करता रहा है जो पहले भी अंकित हो चुका था मगर हर बार एक नयी चमक लोगों को दिखी।
उपन्यास में इस बात की पुष्टि हो जाती है कि बाज़ार एक ऐसा जादू है जहां चालाकी से सब कुछ आसानी से बेचा और ख़रीदा जा सकता है। यह बात दीगर है कि जो शख्स अपना सब कुछ बेचकर कुछ और खरीदना या पाना चाहता है वह ज़रूरी नहीं कि मिले लेकिन वह इस बाज़ार में पहुंचता ज़रूर है।
उपन्यास को पढ़कर इस बात का अनुभव होता है कि हम कहीं से भी स्वतंत्र नहीं हैं बल्कि बाज़ाररुपी सत्ता के हाथों बने खिलौने हैं और वह अपनी इच्छा के अनुसार हमें नचाती रहती है। और के विविध रूपों और ग्लैमर की दुनिया के पीछे की हकीकत से यह उपन्यास हमें वाकिफ कराता है। चार खण्डों में विभक्त यह उपन्यास इस बात की तार्किक परिणति तक ले जाता है कि यदि हमें यदि हमें बाज़ार के साथ चलना है अथवा वहां टिकना है तो अपने-आप को बाज़ार के मुताबिक गढ़ना होगा। यह उपन्यास की सच्चाई है और ज़माने की भी। और इनसे परे जो जीवन जीना चाहते हैं वे अज्ञात ही रह जाते हैं। दरअसल इसमें दोष हमारा नहीं, व्यवस्था विशेष का भी नहीं बल्कि यह दोष है ग्लोबलाइजेशन द्वारा आयी दुनिया का। इस दुनिया के केन्द्र में है बाज़ार और वहीं पर खड़ी है स्त्री। हर उत्पाद को उपभोक्ताओं के बीच कपाना है, जहां स्त्री देह की जरूरत है। अलबत्ता अभिज्ञात का कला बाज़ार इसी बात की पड़ताल करता है और विमर्श को नये सिरे से परिभाषित करते हुए वह कभी मोरा केरूप में आती है तो कत्याल के रूप में, कभी रत्ना तो कभी अंजू के रूप में। सभी पात्र अपनी बनावट में नयी दिखती हैं। हालांकि उन सभी में अपने को बेचने की होड़ है और इसके लिए उनमें नित नया दिखने की चाहत भी है। उनके मन में एक बात और चलती रहती है कि यह जो ढलने वाला जिस्म है, कैमरे में कैद हो जाने के बाद अमर हो जायेगा। इसी कारण कम से कम समय में सब कुछ पाने का उतावलापन है और इस सब कुछ पा लने की होड़ में वे अपना सब कुछ बेचने को तत्पर हैं, अपनी देह का एक-एक अंग। एक बार नहीं, कई कई बार। किसी एक के हाथ नहीं कइयों के हाथ। मन में यह ख्वाइश भी कि हर बार अपनी देह नये रूप में बेचे और अधिकाधिक कीमत भी वसूल करे। उपन्यास बेहद रोचक और पठनीय है। यह सोचने को भी विवश करता है कि हम बाज़ार में खड़े हैं और हमारे चाहे अनचाहे हमारी कीमत लग रही है। हम वसूल पायें न पाये कीमत तो लगेगी ही। चौकन्ने रहे तो अच्छी कीमत वसूल पायेंगे, वरना कब कहां बेच दिये जायेंगे हमें पता ही नहीं चलेगा।

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