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Monday, November 15, 2010

भूमिका-इसी बहाने

यह उपन्यास मैंने जालंधर में मार्च 2001 में लिखा है। 'अमर उजाला' में पत्रकारिता के दौरान मुझे अमृतसर और दूर-दराज़ के गांवों में भी जाने का अवसर मिला। देश के विभाजन के कारण सीमा-पार पाकिस्तान से अपना सब कुछ छोड़कर पंजाब आये लोगों पर 'अमर उजाला' के एक स्तम्भ 'पड़ाव' में भी काफी लिखा। इस क्रम में उनके जीवन को ही समझने का अवसर नहीं मिला, बल्कि जीवन के प्रति मेरा स्वयं का नज़रिया भी विकसित हुआ। ये वे लोग नहीं थे जो केवल तबाह हुए थे, बल्कि फिर एक नया जीवन न सिर्फ़ जी रहे हैं और अपनी एक दूसरी पहचान भी बना चुके हैं। कुछ ऐसे भी मिले जो अब तक विभाजन के दंश से उबर नहीं पाये थे। विभाजन से पहले के बने हुए मकान, पतली-संकरी गलियां अमृतसर की, अपने में कई कहानियां समेटे हुए मिलीं, जिनकी आहट मुझे विभाजन की त्रासदी झेल चुके लोगों की बातों में सुनायी देती थीं।

अमृतसर में रिपोर्टिंग के काम से मुझे फ़ुरसत नहीं थी कि उस पर कभी ठीक से विचार कर सकूं। अलबत्ता जब ट्रांसफर होकर जालंधर आ गया और डेस्क पर ड्यूटी लगी तो मुझे समय मिलने लगा अनुभूति व जाने हुए के मंथन का। उसका एक कारण यह भी था कि मेरा परिवार कोलकाता में था और मैं जालंधर में, अपने सहकर्मी सुखविन्दर पाल सिंह चड्ढा का रूप पार्टनर था। इस आगरे के सरदार ने मुझे डिस्टर्ब न कर मुझे सहयोग दिया। इस उपन्यास को तो मैंने पंजाब पर केन्द्रित कर ही लिखने का मन बनाये हुए था किन्तु यह मेरे वश में नहीं रहा। यह कोलकाता की दुनिया में प्रवेश कर गया चुपके से, अनायास, जहां फ़ैशन की दुनिया में उन दिनों हंगामा मचा हुआ था बंगाली बालाओं का, जब मैंने कोलकाता छोड़ा था। बंगाली बालाओं ने विश्व स्तर पर अपनी ओर सबका ध्यान आकृष्ट किया था। मैंने 'जनसत्ता' में फ़ैशन पर काफ़ी कुछ लिखा था और उस दुनिया को भी क़रीब से देखने का अवसर मिला था। वह दुनिया भी इस उपन्यास में समा गयी।

इस उपन्यास को लेकर मैं उत्साहित न होता अगर मेरे पत्रकार मित्रों ने गर्मजोशी भरी प्रतिक्रियाएं न दी होती। इसका पहला समग्र पाठ मेरे और चड्ढा के जालंधर के कमरे में चाय-पकौड़ों के कई दौर में हुआ तथा उसके विभिन्न अध्यायों का वाचन अलग-अलग लोगों ने बारी-बारी से किया। साथ ही खट्टी-मीठी प्रतिक्रियाओं को दौर भी चलता रहा। इसमें शामिल पत्रकार विभिन्न विधाओं के लेखक भी हैं। सुधीर राघव, रणविजय सिंह सत्यकेतु, डॉ.संजय वर्मा, ओमप्रकाश तिवारी, विद्युत प्रकाश मौर्य इसमें शामिल थे। हरिहर रघुवंशी और अमरीक सिंह ने इसके बारे में बाद में पढ़-सुनकर सराहनीय प्रतिक्रियाएं दी थीं। उसके बाद तो मैं इंदौर (वेबदुनिया डाट काम), जमशेदपुर (दैनिक जागरण) होता हुआ आख़िरकार अपने परिवार व अपने आत्मीय संसार में कोलकाता (सन्मार्ग) लौट आया। इस बीच बसने-उजड़ने और बिखरने समेटने का दौर जीवन में चलता रहा। पांडुलिपि यूं ही पड़ी रही। दोस्तों के ई-मेल, पत्र, फ़ोन आते रहे और मेरे हालचाल पूछने के क्रम में इस उपन्यास की बाबत भी पूछताछ चलती रही। वह बोल्ड, धांसू, बम्बर उपन्यास कहां गया? क्या उस पर कोई फ़िल्म-धारावाहिक आदि भी बन रहे हैं जैसे सवाल दगते रहे। अरसे बाद भी उसके प्रथम पाठकों के मन में इसकी याद बनी रही तो इस बात की थोड़ी आश्वस्ति है कि शायद बात कहीं कुछ बनी है।

-अभिज्ञात

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