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Monday, November 15, 2010

खण्ड : एक

वह फ़्लाप नाटक और उसकी पाण्डुलिपि
यह कहानी बनती ही नहीं अगर दस साल पहले लिखे बीस सफे के एक एकांकी नाटक की तलाश में सात साल नहींगुजर जाते। हालांकि वह नाटक मुझे अभी तक नहीं मिला है मगर मन में कहीं कहीं संतोष है कि उसकी तलाशने मुझे ज़िन्दगी के ऐसे दिलचस्प अनुभवों से गुज़रने का अवसर प्रदान किया जो मेरी लेखकीय जिन्दगी को लम्बेसमय तक खूराक देने वाली साबित हुई।
उसने कई कहानियों को जन्म दिया और ऐसी नाटकीय परिस्थितियों से परिचित कराया कि यदि मैंने अपने खोएनाटक के बाद नाटक लिखना छोड़ दिया होता तो कुछ बेहतरीन नाटकों की रचना में सफल होता। हालांकि मैंनेनाटक लिखना छोड़ दिया था उसके काफ़ी दिनों बाद वह नाटक कब खोया इसका कुछ भी अंदाज़ा नहीं लगा।अलबत्ता यही जान पड़ता है कि उस नाटक के मंचन के बाद हुई भगदड़ में मेरे हाथ में फ़ाइल तो रह गई थी मगरशायद उससे नाटक की पाण्डुलिपि गिर पड़ी होगी। इसका पता मुझे उसी दिन चल गया होता यदि मैंने फ़ाइल खोलीहोती, लेकिन लगभग दस साल बाद जब दूरदर्शन के लिए उस नाटक की मांग हुई तो मुझे उसे खोजने का ख़यालआया। इन दस सालों में मैं अपने-आपको एक असफल नाटककार मान कर दूसरी विधाओं में लिखने लगा था, इसलिए अपने इस अंतिम नाटक के प्रति भी अरसे तक लापरवाह बना रहा।
रात भर जागकर लिखे नाटक की पाण्डुलिपि खोने के बाद उसे बरसों तलाश करने की ज़हमत मैं उठाता रहा लेकिनउसे फिर लिखने की मनोदशा कभी तैयार नहीं हो सकी। अपनी खोई पाण्डुलिपि की तलाश में मैंने कितने ही शहरोंके चक्कर लगाए। कितनी ही पुस्तकों की रायल्टी उसमें स्वाहा हो गई। कई बार तो नौकरियों से हाथ धोना पड़ाक्योंकि इस पाण्डुलिपि के फेर ने मुझे ज़िन्दगी की उन राहों पर डाल दिया जहां से वापसी एकदम आसान नहीं थी।मैं बार-बार परिस्थितियों में ऐसा उलझ जाता था या कहिए कि रम जाता था कि मैं अक्सरहा भूल ही जाता था किमैं दरअसल एक पाण्डुलिपि की तलाश में निकला हूं जो लापरवाही से मैंने खो दी है। जिसकी रचना अब मेरे लिएफिर संभव नहीं रह गयी है। कई बार तो मुझे यह भ्रम होने लगता है कि या पाण्डुलिपि की तलाश ज़रूरी है। क्यों मैंएक खोई रचना के पीछे पड़ा हूं। जो हो गया सो हो गया। अब मुझे नए सिरे से नयी बातें सोचनी और लिखनीचाहिए। ख़ास तौर पर उस समय तो और भी यह आवश्यक लगता है जबकि वह रचना हमेशा एक साधारण दर्जे कीलगी और जिसके पहले ही मंचन से मुझे इतनी हताशा हुई कि मैंने नाटक लिखना तक छोड़ दिया। किसी नाटक कोदर्शकों की ऊब को देखते हुए आनन-फानन में कुछ हिस्से बीच में काटते हुए उसे ख़त्म करना पड़े तो उससे बढ़करउसकी असफलता का और क्या प्रमाण हो सकता है। मैं अपनी एक असफल रचना की तलाश में अपनी ज़िन्दगीक्यों गर्त कर रहा हूं ख़ुद इसका ज़वाब मेरे पास नहीं है। क्या किसी असफल रचना की तलाश भी किसी कीज़िन्दगी को माने दे सकती है? क्या कोई असफल रचना अपने आप में किसी सफल रचना से अधिक माने रखतीहै? क्या असफलताओं का पीछा करना मनुष्य की नियति है? इन तमाम सवालों से मेरा कई बार साबका होता रहाहै, जिनका जवाब मुझे हर बार अलग-अलग मिला है, मगर जो जारी रही तो तलाश। खत्म होने वालासिलसिला। जैसे कि मकसद मिल गया हो ज़िन्दगी का।

कई बार लगा है कि शायद हर किसी को तलाश होती है ज़िन्दगी के लिए किसी किसी मकसद की। यह तलाश भीवही है शायद। कोई जानेगा तो शायद यक़ीन नहीं करेगा मेरी इस सनक पर। पहले रीतू ने भी कहां यक़ीन किया थाजिससे शुरू हुई थी यह तलाश। हालांकि वह ख़ुद हर बार एक नयी रीतू मिली। कभी रीता लालवानी तो कभी रीतातायवाला। कभी अभिनेत्री तो कभी गायिका। गारमेंट्स गुड्स का शो-रूम चलाने वाली। वह ख़ुद नहीं मानती किवह जो कुछ कर रही है वह भी उसी तरह की ज़िन्दगी से मेल खाता है। उसको भी यह पता नहीं है कि दरअसल वहखोज क्या रही है। वह किस सफ़र पर निकली हुई है। वह यदि किसी अजाने सफ़र पर नहीं निकली होती तो शायदउसे कोई हर्ज़ नहीं था, मेरा हमसफ़र बनने में। हालांकि यह मैं दावे के साथ नहीं कह सकता कि हमारा अपना साथक़ायम रह सका, उसके पीछे उसकी वज़हें ज़्यादा ज़िम्मेदार थीं क्या मेरी। मैंने उससे कभी कुछ चाहा ही नहीं।केवल उसकी चाहतों का आईना भर बना रहा।

उसी तरह कत्याल और मोरा का भी मेरी ज़िन्दगी में आना और जाना जैसे मेरे वश में नहीं था। हां, उन्होंनेपाण्डुलिपि की तलाश को नया अर्थ ज़रूर दिया और देखते ही देखते बरसों गुज़र गये। कोलकाता से अमृतसर तककी यात्रा, एक जमी-जमाई गृहस्थी से खानाबदोशों सी ज़िन्दगी मुझे मिली और मेरे हाथों से जाती रही। देश की एकसीमा से दूसरी सीमा, ज़िन्दगी के तौर-तरीक़ों में भी उसी तरह का बदलाव लाते रहे। कभी-कभी लगता है कि यहपाण्डुलिपि की तलाश होती तो मैं क्या कर रहा होता?

और सच कहूं कि मैं एकदम नकली लेखक की ज़िन्दगी इन गुज़रे वर्षों में जीता रहा। लिखना तो उसी दिन से छूटगया था जिस दिन से पाण्डुलिपि की तलाश शुरू की थी। बरसों तक मेरे लेखक होने का जो लोगों के मन में भ्रमबना रहा, वह उसके पहले के लेखन का ही प्रभाव था। लोगों को सहसा मेरी कोई रचना दस, बारह, पंद्रह साल बादप्रासंगिक लगने लगती और उसकी चर्चाएं छिड़ जातीं। पहले ही प्रकाशकों को दी हुई पुस्तकें कई वर्ष बाद छपीं तोलोगों को लगा कि मैं खूब लिख रहा हूं। सच कहूं कि मैंने पिछले दस-बारह सालों में बहुत कम ही लिखा है।कभी-कभी तो मुझे इस बात पर पूरा यक़ीन सा हो जाता है कि मेरे भीतर लिखने वाला कोई और था जो अब नहींरहा। हालांकि कई बातें मन में घुमड़ती रहीं इस बीच और वे अपना एक रूपाकार ग्रहण करने के बाद फिर बिखरतीभी चली गईं। मैं उन्हें ज़िन्दगी की आपाधापी में कभी सफों पर उतार ही नहीं सका। कई बार तो लिखने बैठा ही नहींऔर कई बार छोटे-मोटे व्यवधानों ने लिखने से विरत कर दिया। इससे मेरे अनुभव-जगत में एक और नया सफ़ाजुड़ा जिसका सुखद या कई बार त्रासद सी अनुभूति मुझे हुई, जिसे किसी ख़ास परिभाषा में मैं नहीं बांध सका। कईघटनाएं मेरे मनोजगत में अपना एक विशिष्ट रूपाकार लेती चली गयीं और फिर वे तिरोहित हो गयीं, ठीकरचना-प्रक्रिया की तरह। वह रचना जो मन में ही रह गयी। उसकी अनुभूति उससे भी बेहतर थी, जो सफ़ों पर उतरजाती है, क्योंकि सफ़े पर उतरने के बाद अनुभूति को एक नया और स्वायत्त रूप लेते हुए मैंने देखा है जिस पर मेराभी कोई वश नहीं होता। रचना-प्रक्रिया किसी रचना को रचनाकार से भी स्वायत्तता ख़ुद--ख़ुद ले लेती है और वहख़ुद अपना रास्ता चुन लेती है। वह अपनी ज़िन्दगी जीती है और लेखक असहाय सा उसे देखता रह जाता है। लेखककई रचनाओं की रचना केवल उस बात को कहने की प्रक्रिया में कर डालता है, मगर वह बात कई बार उसी तक रहजाती है। हर बार रचना उसके कहे से अपने को स्वतंत्र कर लेती है। ऐसे भी लेखक हुए जिन्होंने पूरी ज़िन्दगी केवलवह कहने की कोशिश में लिखते हुए गुज़ार दी जो वे नहीं कह पाये। उन्होंने अनचाही कृतियां दीं और उन्हें अपनानाम दिया। उन्हें रचने का श्रेय लिया। प्रशंसा पाई और आलोचना सही। लिखने पर लिखने की ललक मन में रहजाती है और अपना रचनात्मक विस्तार लेती है। वह उतनी स्वायत्त नहीं होती। चूंकि वह मनचाही होती है इसलिएवह अधिक सम्मोहक बन पड़ती है।

मुझे तो कई बार लगता है कि जो इस प्रक्रिया से गुज़रने का आदी हो जाता है, वह लिखना छोड़ सा देता है। वहलिखने के बारे में केवल बता सकता है कि वह अमुक बात, अमुक कहानी या अमुक विषय-वस्तु पर लिखनाचाहता है। वह जब कहता है तो प्रभावित करता है। कई ऐसे लेखक आपको मिल जायेंगे जिनका लेखन किन्हींवज़हों से स्थगित हो गया, मगर बाद के दिनों में वे लिखने के मुद्दे को लेकर ता-उम्र घूमते रहे मगर लिख नहीं पाये।स्थगित लेखक की भी होते हैं जिनकी पहचान होनी चाहिए। इन स्थगित लेखकों ने जो कह कर दिया वह यदिलिपिबद्ध हो सकता या उन्हें किसी प्रकार रचनात्मकता में शुमार किया जाता तो वे बेहतरीन कृतियां होतीं। मैंने भीवही स्वाद चख लिया था। उसका आनन्द लेने लगा था। इस आनंद के कुछ कारण और भी थे।

एक तो यही कि यह जो सोचना भर था, वह मेरे जीवन के आवेग में कहीं भी बाधक नहीं बनता था। उसमें लेखकीयजीवन की वह त्रासद स्थितियां नहीं थीं, जिसमें एक लेखक रचना के क्षणों में जीवन से एकदम अलग होकर एकदूसरी दुनिया का प्राणी बन जाता है। लेखक एक प्रकार से अपने ही जीवन से निवार्सन झेलने को भी विवश होजाता है। यहां यह सुख था कि मैं निछक जीवन को उसकी समूची हलचलों में शरीक होकर जीता रह सकता था औरउसमें भी कुछ स्थितियों को अपनी कल्पना के अनुसार मनचाही भी बनाकर उसके आनन्द को में और इज़ाफा करलिया करता था। यहां तक की कई हताश कर देने वाली स्थितियों को भी मैं एक नाटक के दृश्य की तरह देखकरउससे उदासीन भी बना रह सका और कई बार सब कुछ ख़त्म होने वाली स्थितियों में तटस्थ होकर चल दिया, किचलो अब ख़त्म हुआ यह प्रसंग।
अब किसी और प्रसंग पर सोचें। इसमें जीवन और मनो-जगत का ऐसा घालमेल था कि मैं जीवन को उसकी समूचीसंवदेनशीलता से साथ जीने में सफल रहा। जिन परिस्थितियों से लोग-बाग आंखे चुराकर निकल जाना चाहते थे, जिन अप्रिय हालातों से वे बच कर निकल सकते थे मैं उन्हें चुनौती देता हुआ, उनके सामने खड़ा हो जाता था। उसेपूरी तल्ख़ी से महसूस करता था। कई बार तो अपमान के ऐसे प्रसंगों को मैंने न्योत डाला जिसका सामना करने कासाहस विरले ही कर पाते। मुमकिन है उसके बाद वे आत्महत्या तक कर गुज़रते। मैंने उन पलों को अपने जीवनमें पूरा सम्मान दिया है और अपमानित करने वाले भी मेरी निग़ाह में प्रिय बने रहे। मेरा रवैया देख मुझेअपमानित करने वालों को भी हैरत हुई। यहां तक की अपमानित करने वाले मुझसे शर्मिन्दा हो गये कई बार तोइतने हितैषी बने की मुझे वैसी दोस्ती अन्यत्र मिली।

खैर में मूल बात पर लौट आऊं कि मुझे इस बात का अब भय लगने लगा है कि कहीं वह खोई हुई पाण्डुलिपि मिल जाये। यदि वह मिल गयी तो मेरे लिए शायद ज़िन्दगी का सबसे उदास दिन होगा। मैं ज़िन्दगी में नाकामियों सेकभी उदास नहीं हुआ। हर नाकामी ने मुझे ज़िन्दगी के नये स्वाद दिये। मैंने जीने और सोचने का पुराना ढर्रा बदलाऔर अपनी ज़िन्दगी को कुछ नया सा देखने दिया और स्वयं उसे नये तरीके से देखने की कोशिश की। और कोशिशकी कि मैं भी अपनी ज़िन्दगी को कुछ नया लगूं। इस कोशिश के बारे में और उसकी वज़हों और उसके नतीज़ों केबारे में बाहर को कोई शख़स नहीं जान पाया मैं और मेरी ज़िन्दगी ही इसके राज़दार रहे। कुछ लिखने की वज़हसे उसकी आहट तक विचार की दुनिया के लोगों को नहीं लग पायी। मैं अपने अलमस्त ढंग से जीने के कुछ राज़दुनिया पर खोल दूं तो शायद दुनिया की नज़रों में एक पतित व्यक्ति माना जाऊं मगर मैंने अपनी ज़िन्दगी कोसमझा रखा था कि वह सब मेरे लिए करना कितना ज़रूरी था। मेरी ज़िन्दगी मेरे ख़याल से मुझे समझ सकी औरउसे भी मुझसे कोई गिला नहीं होगा कि मैं अमुक की ही ज़िन्दगी क्यों हुई। कई बार मुझे यह भी लगता है किदुनिया बराबर दो हिस्सों में बंटी हुई है। एक ऐसी दुनिया हर शख़्स की ज़िन्दगी में होती है जिससे वह कभी किसीसे साझा नहीं करना चाहता मगर वह एक से दूसरे तक पहुंचती अवश्य है, दबे पांव। हरेक को लगता है कि सिर्फ़वही और वही जानता है जीने के कुछ गुर जिनके बग़ैर ज़िन्दगी बेमज़ा हो जाये। मैं पहले ही बता दूं कि आप ऐसीकोई अपेक्षा मुझसे पालें कि मैं आपको अपने राज़ बता दूंगा। अलबत्ता आप मेरे तौर-तरीक़ों से अनुमान लेंइसकी सिर्फ़ पूरी छूट आपको है बल्कि मैं चाहूंगा कि आप ऐसा ही करें।

किसी भी रचना पर यक़ीन के साथ कुछ कहना पाठक की सबसे बड़ी लापरवाही मैं मानता हूं और उन्हें यहमासूमियत करने की सलाह कभी नहीं दे सकता। जब लिखने वाला ही यक़ीन के साथ नहीं लिख पाता तो उस लिखेपर कोई यक़ीन क्यों कर करे? जो लोग पूरे यक़ीन से कुछ लिखते हैं उन्हें उनके अलावा कोई और पाठक मिल जायेतो उसे में इत्तफाक़ ही कहूंगा। मैंने अपनी ज़िन्दगी में कभी भी किसी विश्वास को अपने आस-पास फटकने नहींदिया। सबसे ज़रूरी काम तो मैंने यह किया कि अपने बारे में किसी की किसी धारणा को पुष्ट नहीं होने दिया। मैंनहीं चाहता कि कोई किसी भी मामले में मुझ पर यक़ीन करे और छला जाये। दूसरों का विश्वास ऐसा बंधन होता हैजिसे तोड़ पाना हरेक के बूते का नहीं होता। इस बंधन से बचने का तरीक़ा मैंने सीखने की बहुत कोशिश की मगरलगातार विफल रहा। मैंने पाया कि लोग विश्वास करने की हड़बड़ी में रहते हैं और वे जल्द से जल्द किसी किसीनिष्कर्ष तक पहुंच जाना चाहते हैं। पता नहीं वे नतीज़ों पर पहुंच कर आख़िर पाना या चाहते हैं? और तो और वे एकतरह का विश्वास टूटने के फ़ौरन बाद उसके बारे में उसके विपरीत विश्वास करने को तत्पर रहते हैं। खैर... मुझ परविश्वास करने वालों ने जरूर धोखे खाये मगर मेरी आत्मा पर इसका कोई बोझ नहीं है कि मैंने किसी को धोखादिया। मैंने कभी अपने- आपको इस क़ाबिल बनाया ही नहीं कि किसी को कुछ दे सकूं। मैंने ज़िन्दगी भर लिया हीलिया है। हालांकि इस बात पर मुझे हैरत बराबर होती रही कि क्यों किसी को लोग बहुत कुछ यूं ही दे दिया करते हैं।मुझे कभी कहीं से कुछ हासिल होने की उम्मीद नहीं रही और ना ही मैंने उसके लिए बहुत सी कोशिशें ही की। इतनाज़रूर किया कि जिसकी ज़रूरत महसूस की उसके पास बेझिझक चला गया और जिस चीज़ की ज़रूरत महसूस हुईउससे वह मांग लिया। आपको शायद हैरत होगी कि मेरी इस मांग में नैतिकता का तो कई कतई शुमार नहीं रहा।कभी मैंने किसी से नियम को ताक पर रखकर सिफारिश करवाई तो कभी किसी से जरा सी जान-पहचान के बादहमबिस्तर तक हो लिया। कई बार तो मैं अपने प्रेम-प्रस्तावों के प्रति ज़रा भी गंभीर नहीं था लेकिन मेरे प्रस्ताव नेसामने वाले के जीवन में ऐसा तूफान खड़ा कर दिया कि मुझे एकायक स्थितियों को संभालने के लिए भाग खड़ाहोना पड़ा। यहां तक की रातों-रात शहर छोड़कर बग़ैर उससे मिले जो अपना भरा-पूरा परिवार, बाल-बच्चे पतिछोड़कर मेरे साथ जीने मरने तक का तैयार हो चुकी थी।

कई बार तो मैंने शरारतन तीन-तीन युवतियों को एक ही समय पर अलग-अलग स्थानों पर मिलने का समयदिया और आराम से घर में सोता रहा। फिर बहाने बनाता रहा कि मैं उनसे मिलने के लिए कितना आतुर था औरकितनी ही कोशिशों के बावज़ूद मैं उनसे नहीं मिल सका। कई बार तो एक ने दूसरी का पता मेरे चाहने पर भीखोज कर निकाल लिया और मुझे लगा कि इससे मुझे कम-से-कम एक से छुटकारा मिलेगा लेकिन उल्टा हुआऔर दोनों में और अधिक करीब आने की होड़ सी महसूस की। कई बार कंधे आंसुओं से तर हुए। बांहों में जकड़ाहुआ मैं यह तक भूल गया कि कौन है वह। वह क्यों रो रहा है, इसका पता होते हुए भी कि मैं ही वज़ह हूं, उसके साथरुदन में शामिल हो गया। रोने वाली की की समस्या का निदान मेरे पास नहीं था। केवल उसकी संवेदना में अपनीसाझेदारी कर सकता था। मैंने सांत्वना यूं दी है जैसे कि उसका दु: दूर होगा, उसके आंसुओं की वज़ह मैं नहीं कोईऔर हो। मैं जीवन में अपनी गतिविधियों के प्रति जितना ही अंगभीर बना रहा उतना ही लगा कि लोग मुझे विश्वाससे भरा-पूरा पाते हैं। यही वज़ह है कि मुझे ना सुनने का अवसर बहुत कम ही मिला। इनकार करने वाला अरसे तकलगातार सफ़ाई की मुद्रा में रहा और पश्चाताप में जलता रहा।

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