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Monday, November 15, 2010

मां-बेटी दोनों से इश्क़ का चक्कर

यह भी हुआ कि किसी समय मां के प्रति आकृष्ट होने के बाद उसकी बेटी के प्रति आकषत हो उठा तो काफी उलझनों से गुजरना पडा। उन्हें भी और मुझे भी। आखिरकार बात वहां जाकर समाप्त हुई कि मां रत्ना और बेटी मोरा दोनों आपस में दोस्त बन गईं और मैं दोनों में से किसी का दोस्त नहीं रहा। दोनों जब भी अलग मिलीं उन पर मेरे दूसरे के प्रति आकर्षण की बात हावी रही और वे उसके कारण कभी भी सहज नहीं हो पायीं। हालांकि मेरे प्रति विकर्षण उनमें नहीं था। मेरे लिए दोनों की उपस्थिति में सहज हो पाना संभव नहीं हो पाता था सो मैंने उनके यहां जाना बेहद कम दिया। यहां तक की रत्ना ने भावुक क्षणों में अपने सारे कपड़े एक-एक मेरे सामने उतार डाले थे मगर उसी क्षण मुझे उसकी बेटी की याद आते ही वह बेहद गलीज़ सा लगा था। यह उस समय की बात है जब दोनों को एक दूसरे के बारे में पता नहीं था, पर मैं तो अनुभूति के स्तर पर इस संकट को महसूस कर ही रहा था।

हालांकि इसका आभास रत्ना को बाद में जाकर हुआ होगा जब बातें खुलकर सामने आ गयी थीं। उसने मुझे शरीर का सुख लेने वाला कीड़ा नहीं माना था, यह उसकी बात की बातों से जाहिर था। वैसे, मुझे उसके इस निष्कर्ष से कुछ सुखद सा लगा हो ऐसी बात नहीं है।

मैंने मोरा से एक बार कहा था कि व्यति को अपने जीवन में कुछ ऐसी खिड़कियां खोल कर रखनी चाहिए जिससे कभी दम घुटता महसूस हो सके तो वह सांस ले सके। मैं उसके जीवन में वैसी ही एक खिड़की खोलना चाहता हूं। क्यों यह कहूं कि उस समय तो मैं ख़ुद उसके लिए वह खिड़की बनना चाहता था, मगर शायद उसकी सांसों की घुटन की वजह ही साबित हुआ। रत्ना के साथ किया गया व्यवहार मेरे लिए वैसी ही खिड़की साबित हुआ। उसकी बेटी की निग़ाहों में मैं उसकी मां के साथ वह रिश्ता कायम कर चुका था, जिसे वह पतित मानती थी। जिसके लिए वह चाहकर भी मेरे साथ तैयार न हो सकी। मेरी बेवकूफ़ी इतनी भर थी कि मैंने किन्हीं नाजुक क्षणों में उसके सामने यह कनफेस कर बैठा था कि उसकी मां से भी मेरे नाज़ुक रिश्ते रहे हैं। हालांकि सदाचारी बनने की ख्वाहिश मेरे मन में कभी नहीं रही फिर इस तरह की कमज़ोरी क्यों आयी यह नहीं कह सकता। या किसी और क़िस्म की लज़्जत मैं लेना चाहता था? मोरा ने अपने-आपको इसलिए भी पीछे खींच लिया क्योंकि मेरा उसकी मां से जुड़ा होना उसके लिए एक नैतिक संकट बन गया था। उसका एक कारण तो उसकी उम्र थी जिसमें नैतिकता के सवाल व्यक्ति तो ज़्यादा मथते हैं, हालांकि उसका नैतिकता से केवल वायवीय परिचय ही होता है। वह किसी नीति को समझने में किसी हद तक विफल ही रहता है मगर अपनी समझ पर उसे गुमान अधिक होता है। उसे पता नहीं होता कि जिन बातों को वह सुनता रहा है वे किस कदर अव्यवहारिक होती हैं तथा जीवन की सचाइयों से चूर-चूर होते रहना ही उसकी नियति होती है। नैतिकता के बारे में अपनी जमी- जमाई धारणाओं के टूटने को वह अपनी टूटन के रूप में आने वाले जीवन में देखता है और दुःखी होता रहता है। बहुत बाद में उसे पता चलता है कि जिसका टूटना उसे अपने ही अस्तित्व के टूटने की तरह लगता रहा वह दरअसल उसका टूटते रहना ही उसकी नियति है। जीवन का दोहरापन यही है। हम जो कहते सुनते हैं उसे जीने के क्रम में कतई नहीं मानते। जिस सच की प्रशंसा करते हम नहीं थकते दरअसल उस सच को गढ़ने में तमाम झूठों का योगदान रहता है, जिसके बग़ैर कोई सच, सच की मर्यादा ले ही नहीं पाता और ना ही सच के तौर पर कभी स्थापित ही हो पाता है। सच ऐसी स्थापत्य कला है जिसकी स्थापना में सबसे ज़्यादा झूठ लगता है। यदि किसी सच को स्थापित करने की विवशता न रहे तो झूठ अपने आप कम हो जायें।

..तो मैं मोरा के मन में उपजे संकट को दूर करने में काफी अरसे तक विफल रहा। बरसों बाद जब दो बच्चों की मां बन चुकी थी तब जाकर वह किसी प्रकार से उबर पायी थी। वह भी इसलिए कि अपने व रत्ना के जीवन से मेरे जाने के बाद उसने रत्ना को किसी और पुरुष के साथ देख लिया था वह भी चंद सुविधाओं के लिए। जब उसकी कथित नैतिकता से उसके मुक्त होने का मुझे आभास हुआ या साफ़ कहूं तो उससे ही सुना तो मुझे अचरज नहीं हुआ। हां, उसके मनोवेग का चाहकर भी मैं सम्मान नहीं कर सका। वह पराजित सी थी। उसे यह लगने लगा था कि मेरा उसके जीवन से उस वक्त चले जाना उसके जीवन की सबसे बड़ी भूल थी। यदि उसने रत्ना से बने सम्बन्धों और फिर उससे मेरे मुंह फेर लेने पर यक़ीन किया होता तो शायद उसका जीवन वह न होता जो आज है। उसने मेरे कहने के बावज़ूद वैसी कोई खिड़की नहीं खोली थी जिससे वह सांस ले सके और घुट रही थी। उसे लगा था कि वैसी खिड़कियां बनाने पर सदमें झेलने होते हैं।

उसे लग रहा था कि काश उसने वह खिड़की खुली रखी होती। मगर नहीं। उसने अपनी कथित नैतिकतावादी धारणाओं के आग्रह पर वैसा ही जीवन जिया जैसा एक भारतीय नारी जीती है। पति सुधीर की हर बात मानी और ख़यालों तक में किसी और को प्रवेश नहीं करने दिया।

अच्छी-खासी पढ़ाई करने के बावज़ूद वह घर मैं क़ैद हो गयी क्योंकि सुधीर का कहना था कि कमज़ोर लोगों की पत्नियां ही घर से बाहर काम पर जाती हैं। ऐसी पत्नियों के पौरुष में कमी होती है। उसने सुधीर का कहना माना। दो बच्चों की मां बनी। सुधीर की कमाई और चरित्र पर उसने कभी शुबहा नहीं किया। आगे चलकर उसे पता चला कि इन्हीं दोनों पर सेंध लग चुकी है। सुधीर ने न सिर्फ़ बाक़ायदा एक विधवा से अरसे से ताल्लुक बना रखा था, बल्क़ि उसे एक किराये के कमरे में रख छोड़ा था। उसके इकलौते बेटे को अपना नाम तक देने को तैयार था। उसका पूरा खर्च भी सुधीर ही उठाता रहा था। गृहस्थी जैसे बंधे शब्द से मोरा की आस्था बुरी तरह से ख़त्म हो चुकी थी। वह यह सब कुछ तब तक चुपचाप ढोती रही थी, जब तक अरसे बाद उससे मेरी मुलाक़ात नहीं हुई थी।

मुझसे मिलने के बाद मोरा ने नए स्वप्न देखने की कोशिश की थी, लेकिन उसकी कड़ियां बीच से काफ़ी ग़ुम थीं। मेरा उससे पिछला सम्बन्ध अब एक नया आकार लेता जा रहा था। उसने ख़ुद अपने जीवन को बदलने और अपने ढंग से जीने की पहल की थी। मैं तो बहाना भर बना था। यह ज़रूर था कि उसने सुधीर से जिस तरह से पीछा छुड़ाया था वह आसान नहीं था। उसका पति उसे किसी भी क़ीमत पर छोड़ने को तैयार नहीं हो रहा था। तमाम तक़रार के बावज़ूद। वह सुधीर से मार खाती रही और आखिरकार उसने उसके साथ रहने से इनकार कर दिया।

वेदना और अवसाद के क्षणों में टूटी मोरा ने मेरी संवेदना का सम्बल पाने की नीयत से सुधीर द्वारा बेल्ट से की गयी पिटाई के निशान दिखाये थे। वह भूल गयी थी कि ऐसा करने में वह मेरे सामने लगभग अनावृत हो गयी थी। मुझे भी यह ख़याल नहीं रहा।

मैं कितनी ही देर तक उसे यूं अपनी आगोश में लिए उसके आंसुओं को पोंछता रहा था। वह छोटी बच्ची की तरह देर तक सुबकती रही और मैं सांत्वना देने के लिए अपनी अंगुलियों से उसके होठों को सहलाता रहा। उसकी बिखरी लटों को संवारता रहा। और फिर यह हुआ कि खुद उसने अपनी परस्थियों को चुनौती दी। सुधीर के खिलाफ़ थाने तक गयी और मामला दायर किया। कुछ घंटे हवालात में गुज़ारने के बाद सुधीर के होश ठंडे हो गये। पुलिस ने बाक़ायदा चेतावनी दी थी कि वह उस घर में न फटके जहां उसकी पत्नी रहती है। मोरा ने दौड़धूप शुरू की और आखिरकार उसे एक संस्थान में जूनियर हिंदी अनुवादक की नौकरी मिल गयी। अब वह आज़ाद ख़याल महिला के तौर पर जानी जाने लगी थी। औरतों के चल रहे आंदोलनों से उसका गहरा रिश्ता हो गया था। स्त्री आंदोलनों में उसकी भागीदारी का यह आलम था कि औरतें अब मुसीबत में उससे दिशा-निर्देश लेने पहुंचने लगी थीं। यहां तक कि उसने एक बार अपनी नौकरानी पर ज़ुल्म करने वाले उसके पति को उसी के हाथों पिटवा दिया था। यह उसका नया रूप था।

इधर सुधीर ने भी अपना रूप बदल लिया था। वह अपने अपने वैवाहिक जीवन में गुज़ारे गये नाज़ुक लम्हों को याद दिलाने और अपने वैवाहिक जीवन को टूटने से बचाने की दुहाई देने लगा था। उसने यह भी वादा किया था कि वह उस महिला को छोड़ देगा और कोई वास्ता नहीं रखेगा, जिसको लेकर उसने एक समानांतर ज़िन्दगी बसा रखी थी। अब मोरा इसके लिए तैयार नहीं थी। उसका कहना था कि आखिरकार एक महिला को बीच मझधार छोड़कर सुधीर को भागने की कोई आवश्यकता नहीं है। जब सुधीर का यह दांव न चला तो उसने बच्चों को वास्ता देना शुरू किया। वह अक्सरहा बच्चों से मिलने के बहाने घर जा धमकता। घर पर मिलने से मना करने पर वह बच्चों से मिलने स्कूल पहुंचने लगा। वह जान गयी थी कि यह सुधीर के हथकंडे हैं। वह अपने जीवन में कुछ भी खोने को तैयार नहीं था। उसे वह जीवन चाहिए था जिसमें पत्नी भी हो और वह भी। आखिरकार मोरा ने वह निर्णय लिया जिसका अनुमान मैंने भी नहीं लगाया था। एक दिन वह अपने दोनों बच्चों और घर में सुधीर के बचे तमाम क़ीमती सामान को ट्रक पर लादे उसके उस घर पर पहुंच गयी जहां वह अब महिला के साथ रहता था। मोरा ने सामान और बच्चे वहीं छोड़ दिया और साफ़ हिदायत दी कि वह अब वे तमाम सम्बंध व हिसाब साफ़ कर चुकी है। अइंदा उससे कोई ताल्लुक़ न रखे।

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