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Monday, November 15, 2010

मोरा का प्रस्ताव और मेरी बीवी

इसके बाद तो उसने एक अहम फ़ैसला और किया था। मुझसे उसने सीधे-सीधे शादी का प्रस्ताव रखा था लेकिन मैंने स्वीकार कर लिया कि मैं अपनी पत्नी को अपने सम्बंधों की सज़ा नहीं दे सकता। उस मासूम को सज़ा देने का कोई मुझे कोई हक़ नहीं। मैं और वह प्यार करते हैं तो उसके लिए हमें सोचना होगा कि हमें अपने सम्बंधों का निर्वाह कैसे करना है। उसमें मेरी पत्नी दंडित क्यों हो?

मैं आपको बता कि मैं बाकायदा शादीशुदा हूं वरना आप सोचेंगे कि यह मेरी पत्नी बीच में कहा से टपक पड़ी। कॉलेज के दिनों में मेरी जो भी महिला मित्र बनी उसमें मुझे ऐसी कोई खा़सियत नज़र ही नहीं आयी जिससे कि मैं पूरी उम्र का रिश्ता जोड़ने की सोच सकूं। पिता ने अपने बचपन के दोस्त की बेटी से रिश्ता लगभग तय ही कर डाला था लेकिन मुझे या फितूर सवार हुआ कि मैं उसे देख आया और फिर इनकार कर बैठा। उसकी शक्ल-सूरत कुछ ख़ास बुरी नहीं थी लेकिन उसमें आकर्षित करने लायक भी मुझे नहीं मिला था। फिर तो मेरे नानाजी ने यह जिम्मेदारी संभाल ली। और जो लड़की उन्होंने पसंद की थी मैंने उसकी तस्वीर भर देखी थी फिर हां कर बैठा था। अबकी बार मेरा साहस न था कि मैं फिर पुरानी कवायद में शामिल होता। लेकिन यह इत्तफाक़ ही कहा जायेगा कि उसे बचपन से आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचने का शौक़ था। यह शौक़ उस समय तक बरकरार रह गया था जब वह शादी के बाद मेरे साथ कोलकाता आयी थी। उन दिनों भी मुझे अपने से फ़ुरसत नहीं हुआ करती थी। घर में हम दोनों बग़ैर एक-दूसरे की संवेदना को पहचाने और उस पर बग़ैर ध्यान दिये इतमीनान से रहने के अभ्यस्त होते जा रहे थे। उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति मैं अपनी ज़िम्मेदारी स्वीकार कर चुका था और वह मेरी आवश्यकताओं की पूर्ति को अपना कर्तव्य मानती थी। शायद इससे अधिक हमने एक-दूसरे से कुछ पाना भी नहीं चाहा था। उसका कारण किसी हद तक मैं था जो अपनी पहले से बनी-बनाई दिनचर्या तथा यार-दोस्तों और अपने लिखने-पढ़ने की दुनिया में तल्लीन रहता था। मुझे अपने-आप में सिमटा पाकर उसने मुझसे कोई अपेक्षा पालीं ही नहीं। वह संतोष करने वाली, प्रकृति से हंसमुख मगर शांत स्वभाव की थी। उसने अपने-आपको मेरे अनुसार ढालने की पूरी कोशिश की थी। मैंने भी अपने व्यवहार से कभी उसे कष्ट देने की कोशिश इसलिए भी नहीं की क्योंकि उसने अपने-आपको एक तरह से मेरी सेवा में खपा दिया था। उसकी और किन्हीं ख़ूबियों के बारे में न तो उसने कभी बताया और ना ही मैंने ध्यान दिया। हमें एक-दूसरे की जो फ़िक्र थी उसकी सीमाएं इन्हीं के इर्द-गिर्द लगभग दो साल तक रही।

फ़ुरसत के क्षणों में वह तरह-तरह के चित्र बनाती रहती। उन्हें वह हिसाब सहेज कर रखती जाती। मैंने उस पर कभी इसलिए भी ध्यान नहीं दिया कि वह खाली बैठने की तुलना में वह यूं ही दिल बहलाती तो या बुरा है? उसमें परिवर्तन उस समय आया जब मेरे एक बुर्जुग चित्रकार मित्र मुबारक़ एकाएक मेरे घर आये। उनकी नज़र एकबारगी अंजू के चित्रों पर गयी तो उन्हें यह जानकर हैरत हुई कि अंजू इतनी अच्छी चित्रकार है यह बात मैंने पहले उन्हें क्यों नहीं बतलाई। उनकी बातों पर मैं ख़ुद शर्मिन्दा था कि मेरा ध्यान इस पर कभी क्यों नहीं गया। सचमुच उसके चित्रों में ऐसी बात थी जो अपनी ओर किसी का ध्यान आकृष्ट कर सकती थी।
मुबारक़ ने वस्तु-स्थिति जानने के बाद न सिर्फ मुझे बुरी तरह फटकारा बल्कि उसने अंजू को एक अच्छे चित्रकार की संभावनाओं से लैस बताया। मुझे पहली बार लगा था कि अंजू भी कलाकार हो सकती है क्योंकि मुबारक़ ज़ल्दी किसी की तारीफ़ करने वालों में से कभी नहीं रहा। वह न सिर्फ मुंबई, दिल्ली की प्रदर्शनियों में अपनी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी कर चुका था बल्क़ि फ्रांस में भी उसकी पेंटिग्स अच्छी खासी क़ीमत में बिकीं थीं। वह पेंटिंग की दुनिया का उभरता हुआ सितारा था। जिन पेंटिंग्स को कभी वह पंद्रह सौ रुपये में नहीं बेच पाया था, उसे वह तीन-तीन लाख में बेच पाने में क़ामयाब रहा था।

उस दिन के बाद से मुबारक़ की दोस्ती मेरे बदले अंजू से हो गयी। दोस्ती या अंजू उसकी लगभग शिष्या हो गयी। पेंटिंग के लिए आवश्यक वस्तुएं ख़रीदीं गयीं। तैल-चित्रों के लिए कैनवास आदि का भी प्रबंध हो गया। अंजू की ज़िन्दगी अपनी रफ़्तार से भागने लगी जिसमें मेरा बहुत कम योगदान रहा। यह कहूं कि मैंने इतना भर सहयोग दिया कि मैंने उसकी ज़िन्दगी के बदले स्वरूप में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया। अब वह ज़िन्दगी के अपने माने खोजती रही और मैं अपने। उसने मेरी एक खास क़िस्म की आवारगी जो बाद के दिनों में पाण्डुलिपि की तलाश से शुरू हुई उसमें बहुत दख़ल नहीं दिया, जिसके लिए मैं मन ही मन उसका आभारी रहा। शायद उसके व्यक्तित्व का ही यह आकर्षण था कि माह दो माह बाद दूसरे शहरों और दूसरे व्यक्तियों में रमा, उलझा मैं भाग-भाग कर उसके पास आता रहा। वह हर बार वह कुछ नयी लगती। कभी तरोताज़ा कभी बिखरी-बिखरी सी।


पेंटिंग की दुनिया में उसकी पहचान बनने लगी थी। उसे पेंटिंग का शौक भले रहा हो और उसके लिए आवश्यक कल्पनाशीलता भी, लेकिन व्यावहारिक कौशल नहीं था, जिसकी जानकारी उसे मुबारक़ से मिली थी। पेंटिंग के बारे में मुबारक ने कई क़िताबें भी उसे लाकर दी थी और फिर तो वह कोलकाता में लगने वाली प्रदर्शनियों के चक्कर लगाने लगी थी। इन दिनों एकाएक शहर में पेंटिंग का क्रेज बढ़ गया था। जो चित्रकार दस बीस हजार में नहीं बिक रहे थे वे अब लाखों में खेलने लगे थे। यहां पेंटिंग का एक अच्छा बाज़ार तैयार हो गया था। कोलकाता के चित्रकार विदेशों में अपना धाक पैदा करने में लग गए थे। ऐसे लोगों को भी एक वर्ग पैदा हो गया था जो बाक़ायदा पेंटिंग का व्यापार करने लगा था। इस बाज़ार में हालांकि सबका प्रवेश मुमकिन नहीं था। चूंकि मुबारक़ उसी दुनिया में पैठा हुआ था, सो अंजू को भी उसमें जगह मिल गयी थी और उसे बाज़ार में प्रवेश के लिए लम्बा संघर्ष नहीं करना पड़ा था। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि नागपुर और फिर अमृतसर से जब कोलकाता लौटा तो वह दूसरे शहरों में अपनी पेंटिंग एक्जीबीशन में व्यस्त थी और मुझे उसका चार-छह दिन बेसब्री से इंतज़ार करना पड़ा था। अमृतसर में तो उसने फ्रांस पहुंचकर फ़ोन किया था। उस दिन फ्रांस में उसकी पहली पेंटिंग बिकी थी सो, वह खासी उत्तेजित और प्रसन्न लग रही थी, अपनी आवाज़ से। मुझे अच्छा लगा था कि उसने अपनी खुशी में मुझे भी शरीक़ होने लायक समझा था। वरना मैंने पुरस्कार आदि पाने पर भी कभी उसकी चर्चा उससे नहीं की थी और ना ही कभी फ़ोन आदि पर उसके बारे में बताया था। मेरे लिए खुशी की बात यही थी कि उसने अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व की तलाश कर ली थी। वह आर्थिक तौर पर मुझ पर निर्भर नहीं थी। यह वज़ह भी थी कि मैं यायावर किस्म की ज़िन्दगी जीने के लिए अंजू की तरफ़ से भी स्वतंत्र कर दिया गया था। उल्टे कभी हाल-चाल पूछने के लिए मैं फ़ोन करता तो वह यह पूछना नहीं भूलती थी की पैसों की ज़रूरत तो नहीं है। बेहिचक कहूं-अमृतसर में मैंने दस हज़ार रुपये एक बार मंगवाए भी थे। मुझे वहां रिपोर्टिंग के लिए स्कूटर की ज़रूरत महसूस होने लगी थी। वहां उस तरह की सिटी बसें नहीं थी जैसी कोलकाता में। पैसे कुछ कम पड़ गये थे। उसने फ़ौरन भेज दिया था। मैं आपको बताता ही भूल गया कि शुरूआत के दिनों में अपने नानाजी का ट्रांसपोर्ट का धंधा मुझे कोलकाता में संभालना पड़ा था। उसी की वज़ह से मैं शुरू-शुरू में कोलकाता पहुंचा था।
मुंबई से पढ़ाई करने के बाद। मेरे पिता वहीं मुंबई में नौकरी करते थे और रिटायर होने के बाद भी उन्हें मुंबई इतनी रास आ गयी कि वहीं रहने का फैसला कर लिया था। नानाजी की मौत के बाद उनका ट्रांसपोर्ट का कारोबार अपनी लापरवाहियों और लिखने- पढ़ने के शौक़ के फेर में डुबोने के बाद मुझे पत्रकारिता ही वह क्षेत्र लगा जिसमें मैं कुछ करना चाहता था। मैने उसी में रमने की कोशिश की। पत्रकारिता के क्षेत्र में मुझे नौकरियों की किल्लत कभी महसूस नहीं हुई।
काम जानने के बाद कभी भी मैं पूरे इतमीनान से एक नौकरी यूं छोड़ कर दूसरी पकड़ लेता था जैसे कि वह पहले से तय हो। किसी में कुछ कम मिलता किसी में कुछ ज़्यादा लेकिन और कोई परेशानी नहीं थी। हिन्दी पत्रकारिता में अंग्रेज़ी ठीक-ठाक अनुवाद कर लेने वाले की वेकेंसी हमेशा रहती है, इसका मुझे पता चल चुका था। पत्रकारिता भी वह वज़ह बनी कि मेरे अनुभव क्षेत्र और संपर्कों का दायरा बढ़ता गया था, और दूसरे लोग यूं ही इज्ज़त की निग़ाह से देखते थे।

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