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Monday, November 15, 2010

मोरा फिर बंधी

खैर तो बात हो रही थी मैं और मोरा काफी समय तक आपस में नहीं मिल सके थे। सम्बंध इस मोड़ पर आ चुके थे कि मेरे मन में उसके लगाव में ठंडापन महसूस होने लगा था। ऐसा हमारे बीच एक गणित की उपस्थिति की वज़ह से हुआ था। हम जोड़ने-घटाने लगे थे जिसके कारण एक अनाम सम्बंध की शिनाख़्त होने लगी थी। उसे परिभाषित करने की अनिवार्यता सी महसूस की जाने लगी थी। मुझे लगा था कि यह नौबत आने के बाद हमारे सम्बंधों का बने रहना निरर्थक था। यह दूसरी बड़ी ग़लती थी जो मोरा ने की थी, जिससे मैं भी किसी हद तक विचलित हुआ था। हालांकि इससे जीवन भर वह प्रभावित हुई। उसने जो रास्ता चुना वह उसे वहां ले गया जहां से फिर कोई खिड़की बेहद मुश्क़िल से खुलती है।

उसने अनजाने ही मुझसे जो अपेक्षाएं पाल रखी थीं उसका चकनाचूर हो जाना उसके लिए इतना कष्टदाई था कि वह तुरंत उसकी दवा की तलाश में निकल पड़ी थी। सुधीर से खार खाए बैठी ही थी जो उसे फिर अपनाने को लालायित था, और बाल-बच्चों की दुहाई देता रहता था। वह जानता था कि अब वह मोरा को पा ले तो उसकी समस्याओं का निदान हो सकता है, क्योंकि वह आर्थिक रूप से सक्षम हो चुकी थी। वह अपने बच्चों को पाल सकती थी और सुधीर को भी गाहे- बगाहे आर्थिक मदद मिल सकती थी। घर की मर्यादा भी बची रहनी थी। उसके मुंह पर कोई यह नहीं कह सकता था कि तुम्हारी पत्नी का अमुक से ताल्लुक़ है। यह बात ख़ुद सुधीर ने मुझे कही थी। न जाने उसे यह किसने सलाह दी थी कि मोरा की वापसी मेरी ही बदौलत संभव है। मैं उसका ऐसा दोस्त हूं जिसका वह कहना मानती है। मेरे प्रति सुधीर के मन में भी आदर था वह मुझे और अपनी पत्नी के सम्बंधों को लेकर ऐसा-वैसा नहीं सोचता था। कई बार तो वह मेरे यहां सीधा धमक उठता था और अपनी कही बातों को चाहता था कि मैं मोरा तक पहुंचाऊं। वह कहता था कि ऐसी मां की समाज में कोई इज्ज़त नहीं होती जो अपने ही बच्चों को अपने से दूर कर दे। वह चाहता था कि कम से कम वह अपने बच्चों को फिर से अपने साथ रखने को राज़ी हो जाये। दरअसल सुधीर को अपने बच्चों से परेशानी होने लगी थी। उसकी दूसरी पत्नी ( हां अब, उसे पत्नी की ही कहने लगा था) उसके बच्चों की ठीक से देखभाल नहीं करती है। दूसरे बच्चों की फ़ीस भी ज़्यादा है जो उसके लिए भारी पड़ रही है, क्योंकि अरसे तक दो-दो परिवारों का खर्च वह वहन करता रहा था जिसके कारण वह कर्ज़ का शिकार हो चला था। कभी वह नाराज होकर कहता कि मोरा ने सारे सामान तो लौटा दिए, बच्चे भी जिसे वह अपना नहीं मानती फिर उसने उसके दिए गए ज़ेवर क्यों नहीं लौटाए?

लालची मोरा जेवर भी लौटा देती तो वह उन्हें बेचकर कर्ज़ से मुक्त हो जाता। हालांकि मैंने उसे सुधीर के पास लौट जाने की राय तो नहीं दी लेकिन यह ज़रूर समझाया था कि उसे स्वतंत्र जीवन जीना चाहिए। अच्छा जीवन जीने के लिए कोई आवश्यक नहीं है कि कोई औरत किसी की पत्नी बनकर रहे ही। फिर उसने वह जीवन जी लिया है, लेकिन मैंने पाया कि वह लगातार इस खौफ़ में जी रही थी कि सुधीर फिर उसके जीवन में किसी न किसी प्रकार वापस लौट आयेगा, जो उसके लिए मौत से भी बदतर होगा। उसके दिल में यह बात घर कर गयी थी कि उसे दूसरी शादी कर लेनी चाहिए।

वह किसी न किसी रूप में शायद सुधीर से उसके किये का बदला भी इस तरह लेना चाहती थी। मेरे सामने रखा गया विवाह का उसका प्रस्ताव उसी का एक हिस्सा था। दूसरा हिस्सा तब सामने आया जब मेरे घर उसकी शादी का कार्ड पहुंचा था। और यह कार्ड कोई और नहीं सुधीर ही लेकर आया था। उसने कहा था कि -'हम लुट गये।'

'हम' का अर्थ उसने स्पष्ट किया कि वह मन ही मन सोचता था कि मेरे साथ उसकी पत्नी के ज़रूर कोई नाज़ुक रिश्ते होंगे, लेकिन इस पर उसे संतोष होता। मुझे वह समाज का एक ऐसा प्रतिष्ठित व्यक्ति मानता था, जिसके बारे में कोई आसानी से कोई अफ़वाह नहीं उड़ा सकता था या शक़ ही ज़ाहिर कर सकता था। यह होता तो भी वह संतोष कर लेता लेकिन यह या, उसने तो मर्यादा की सारी सीमाएं पार कर ली है। वह अपने से भी कम उम्र के कुंवारे एक युवक से शादी करने जा रही है, जो उससे कम पढ़ा-लिखा है और उससे छोटे ओहदे पर काम करता है उसी के कार्यालय में। बाद में शाम को सुधीर का फ़ोन आया कि यह संतोषजनक है कि मोरा ने उसके दिए ज़ेवर लौटा दिए हैं जिसके बल पर कर्ज़ मुक्त हो जायेगा। उसने इसके लिए मेरा आभार माना था, जबकि मैंने इन गहनों की चर्चा मोरा से कभी की ही नहीं थी।

आपसे सच कहूं कि मैं उस शादी में नहीं गया था। न जाकर मैंने उसके निर्णय के प्रति अपनी असहमति ही दर्ज़ नहीं की थी बल्क़ि अरसे तक उसके घर की ओर रुख नहीं किया। इधर-उधर से उसके बारे में सुनता रहा। एक दिन आकाशवाणी के एक कार्यक्रम में मोरा से एकाएक मुलाक़ात हुई तो भी न उसने बात की और न मैंने। जैसे हम अज़नबी हों। उसके जीवन में क्या हुआ इस दरम्यान मैं नहीं जान पाया और उसके बाद बरसों हमारी मुलाक़ात नहीं हुई। ट्राम से मैं गुज़र रहा था और वह ज़ल्दी-ज़ल्दी में सड़क पार करती दिखी तो मैं धीमी चलती ट्राम से उतर गया और उसे आवाज़ दी। मुझे देख उसके चेहरे पर एक फीकी मुस्कान तैर गयी। उसके बाद मैं उसके घर तक गया जहां वह तनहा रह रही थी। उसी दिन उसने बड़े कातर ढंग से बताया था कि उसे हड़बड़ी थी। वह जल्द से जल्द सुधीर से मुक्त होना चाहती थी। उसके दिलों- दिमाग पर सुधीर का खौ इतना छाया हुआ था कि वह उसके ख़यालों से चाहकर भी किसी प्रकार मुक्त नहीं हो पा रही थी। उसे पूरा यक़ीन था कि मेरे घर आकर वह महफूज़ हो जाएगी। उसने मेरे साथ रहने का जो प्रस्ताव रखा था, उसके पीछे मेरे साथ रहने की इच्छा कम और सुरक्षा अधिक थी। मेरे इनकार के बाद उसकी मन:स्थिति वह नहीं रह गयी थी जो प्रस्ताव रखने के पहले थी। मेरे इनकार के बाद सुरक्षा का प्रश्न उसके लिए कुछ गौण हो गया था और इनकार का सदमा उसके दिलो-दिमाग पर हावी हो उठा था। वह मुझसे किसी मामले में इनकार की कल्पना भी नहीं कर पा रही थी। मेरे इनकार के बाद वह अपनी ज़िन्दगी से बुरी तरह निराश हो चली थी। उसने सुधीर से बचने और मेरे इनकार के सदमे से उबरने के क्रम में अपने एक सहकर्मी से शादी करने का निर्णय लिया था। उसका एक कारण यह भी था कि लोगों को उसकी ज़िन्दगी की उथल-पुथल का पता चल चुका था। लोग यह जान चुके थे कि वह अपने पति से अलग रह रही है और उसका पति अब उसके जीवन में कोई दखल नहीं दे सकता है। वह बेबस हो चुका है। उसने अपने पति को ही जेल भिजवा दिया था।

लोग उसके जीवन के बारे में कुछ इस तरह की बात करते थे जो बेहद अपमानजनक लगता था। यह कहने से नहीं चूकते थे कि वह अब अपनी पहाड़ जैसी ज़िन्दगी अकेले कैसे बसर करेगी।

उनकी बातों से साफ़ जाहिर था कि उनका इशारा उसकी तन्हा रातों की तरफ़ था। वे खुद को इस तरह से पेश करते थे जैसे वे उसकी रातों की तन्हाई दूर करने के इच्छुक हैं यदि मुझे ऐतराज न हो तो। धीरे-धीरे उसे लगने लगा था कि पूरा समाज तनहा औरत को इस नज़र से देखता है जैसे वह सामूहिक उपभोग की चीज़ हो। कोई भी उसका हम-बिस्तर हो सकता है। उसने जो अपने पति के अपने यहां आने पर पाबंदी लगाई हुई है उसका मकसद खुल कर यौनाचार करना ही है। पति इसमें शायद बाधक हो रहा था इसलिए उसे रस्ते से हटा दिया। उसे देखकर जहां सोलह-अठारह साल के किशोर फिकरे कसने लगते थे वहीं पचपन-साठ के प्रौड़ अपने व्यक्तित्व को कुछ आकर्षक सा लगने वाली मुद्रा में नज़र आने लगते थे। उसे लगने लगा था कि भाषा में शब्दों की बेहद कमी हो गयी है और शब्द के अर्थ एक ख़ास किस्म के अश्लील इशारों में तब्दील हो चुके हैं। यह भाषा केवल उसी के साथ इस्तेमाल की जाने लगी थी। उसे फ़ोन करने वालों की तादाद में सहसा इज़ाफा हो चला था। देर रात तक लोग यूं ही फ़ोन करते थे। उसके परिचितों में कुछ लोग इधर सहसा कवि हो चले थे और वे अपनी कविताएं फोन पर सुनाने से बाज नहीं आते थे। उसकी मज़बूरी यह थी कि दिलचस्पी लेने वाले लोगों से वह कम से कम एक सामान्य शिष्टचार रखती थी, वरना उसके दुश्मनों की संख्या में दिनों-दिन इज़ाफा हो जाए।

फिर वह किस-किस से दुश्मनी मोल लेती फिरे। दूधवाले से लेकर सब्जी बेचने वाले तक, दवा दुकानदार से लेकर अख़बार पहुंचाने वाले तक की एक ललचाई नज़रों की वह आदी होती जा रही थी। उसे यह सोच कर बड़ी कोफ़्त होने लगी थी कि उसके अंदर ऐसा क्या उग आया है, जिसके चलते हर जगह वह एक ख़ास तरह का निशाना बन चुकी है। अब वह जिस तरह से रहने लगी थी उसकी तुलना में वह ज्यादा बन संवर कर उन दिनों रहती थी, जब सुधीर उसके साथ था लेकिन पहले ऐसा नहीं था।

यह वे बातें थीं जिनका ज़िक्र मोरा ने मुझसे पहले कभी नहीं किया था। यह भी उसने महसूस किया था कि मैं 'उस तरह' का आदमी एकदम नहीं हूं। शायद मैं भी वैसा होता तो उसे कुछ अच्छा ही लगता। कभी-कभार उसके मन में यह ख़याल भी चोर दरवाज़े से आया था। उसने अपनी समस्या का जिक्र मुझसे कभी इसलिए भी नहीं किया था कि कहीं मेरे मन में उसको लेकर कोई झेंप न हो। मुझे यह न लगे कि प्रकारांतर से वह मुझसे कुछ इसी तरह की बातें कहना चाहती है जिसका मुझसे कतई लेना- देना न था।

उसने दोबारा शादी का जो कदम उठाया, काश कि वह उसके अन्य ख़यालों की तरह ही ख़याल भर होता। मगर वह एक ऐसी हक़ीक़त थी जिसका उसे ख़ुद यक़ीन नहीं था कि वह या कर बैठी है। उसका पछतावा शादी के दूसरे ही दिन से शुरू हो गया था। महीने भर बाद उसे अपने दूसरे वैवाहिक जीवन से इतनी घुटन होने लगी थी जितनी पहले में भी नहीं हुई थी। उसके नए पति ने गणितीय चतुराई के साथ उसके साथ विवाह किया था। उसके लिए मोरा का वज़ूद एक सुविधा भर था। उसके सास-ससुर से लेकर उसके तमाम नातेदार-रिश्तेदार इससे खुश थे कि वह एक आर्थिक इकाई थी। उन्हें मोरा की भावनाओं से कोई सरोकार न था। कमाने के बाद भी वह अपनी मनपंसद पत्रिकाएं तक नहीं मंगा सकती थी यह उसके पति राकेश की निगाहों में फिजूलखर्ची थी। आफ़िस से घर और घर से आफ़िस जाने के अलावा उसका कहीं कोई सरोकार हो, यह उन्हें गवारा न था। यहां तक कि परिचितों से फ़ोन पर बात करने पर लोग कान लगाए रहते थे। उसे साफ़-साफ़ समझाया गया था कि माना कि उसने गुस्से में अपने बच्चों को अपने पति के यहां रख छोड़ा था किन्तु अब उन्हें वापस लाने और मिलने-जुलने का ख़याल तक मन से निकाल दे। वह एक गुज़री हुई ज़िन्दगी भर थे और जिससे उसका कोई भी सरोकार नहीं रहना चाहिए था। उसकी हर हरकत पर इस तरह नज़र रखी जा रही थी जैसे कि इस बात की चांज की जा रही हो कि उसके बीते जीवन की विफलता में उसका किस हद तक हाथ रहा है।

कहीं वही तो दोषी नहीं रही पूरे प्रकरण की। हर समय उसके चरित्र व व्यक्तित्व की जासूसी किए जाने का आभास उसे उस समय हुआ जब अपने की कार्यालय के एक व्यक्ति ने इस बात का खुलासा किया कि उसके बारे में उसका शौहर अजीबो- गरीब सवाल पूछता रहता है। उसे जासूसी की ज़रूरत इसलिए भी पड़ गयी थी कि उसका तबादला कोलकाता के ही दूसरे कार्यालय में विभागीय आवश्यकताओं के अनुसार हो गया था। राकेश को शुबहा था कि इस तबादले के पीछे उसी का हाथ है। उसका कारण उसे यह समझ में आया था कि विभाग के कुछ ऊंचे अधिकारियों का उसकी पत्नी के प्रति साफ्ट कार्नर है। वह मोरा को कार्यालय में किसी भी उल्लेखनीय कार्य में मिली प्रशंसा को शक की निग़ाह से देखता था। राकेश को समय बहुत अपमानजनक लगा था जब उसका तबादला बग़ैर किसी तरक्की कर दिया गया और मोरा को और ऊंचा ओहदा मिल गया। हालांकि विवाह पूर्व भी वह राकेश से ऊंचे ओहदे पर थी। पहले जिस बात को राकेश अपनी उपलब्धि मानता था कि उसने अपने से ऊंचे ओहदेवाली महिला से शादी की है, अब वही बात उसके लिए हीनता का सबब बन गई थी। वह मोरा की तरक्की को उसकी कार्यक्षमता मानने को कतई तैयार नहीं था। राकेश की इस मानसिकता ने उसे अजीब से पशोपेश में डाल रखा था। राकेश की हर बात में व्यंग्य का पुट होता था जिसके कारण वह उखड़ी-उखड़ी रहने लगी थी। बाद में तो उसकी कुंठाएं खुल कर सामने आने लगी थीं। कभी वह उसके अधिक पड़ा होने पर हैरत व्यक्त करने लगता था और दावा करता था कि शिक्षा-व्यवस्था एकदम लचर हो चुकी है इसलिए वह पोस्ट ग्रेज्युएट हो गयी वरना वह दावे के साथ कह सकता है कि 12वीं भी पास नहीं करने लायक नहीं है। वह यह बार-बार कहता था कि लोगों को तरक्की उसकी प्रतिभा के बल पर नहीं मिलती। उसने फिर मुखर होना शुरू किया तो बिस्तर पर एकांत क्षणों में भी मोरा को आहत करने में कोई कसर नहीं छोडी। कभी वह वात्स्यायन के हवाले से कहता का कि आदर्श जोड़ी वह होती है जिसमें पुरुष से महिला आठ साल छोटी हो। वह जानती थी कि चूंकि उसकी उम्र राकेश से चार साल बड़ी है इसलिए उसे यह भी भ्रम हो गया था कि वह उन क्षणों का सही ढंग से आनंद नहीं उठा पा रहा है। कई बार तो वह कुछ उन विदेशी फिल्म अभिनेत्रियों का नाम लेता, जो अपने से कम उम्र के युवकों के साथ यौन संपर्क इसलिए स्थापित करती थीं ताकि कि वे और युवा रह सकें। राकेश कहता कि युवा बने रहने के लिए अपने से कम उम्र के व्यक्ति के साथ यौन संपर्क बनाना एक कारगर नुस्खा है। उसकी बातें अनायास नहीं लगती थीं। वह उन उदाहरणों से मोरा पर व्यंग्य के तीर छोड़ता था या शायद उसके मन में यह बातें इसलिए बैठी हुईं थीं क्योंकि वह इस बात को भूल नहीं पाता था कि वह उससे कम उम्र का है। जबकि हक़ीकत यह थी कि राकेश उन क्षणों को भी मोरा को प्रताड़ित करने के ही काम में लाता था। अपनी हीन ग्रंथी से मुक्त नहीं हो पाता था। कई बार तो राकेश चाहकर भी कुछ कर पाने में विफल हो जाता था और व्यंग्य के पुट में कहता था कि तुम्हीं कुछ करो। तुम्हें तो इन सबका अच्छा खासा अनुभव है। 'अनुभव' शब्द को वह इस तरह से कहता था जिससे वह तिलमिला उठती थी। उसके कथन में सिर्फ यही भाव नहीं था कि वह पहले से ही शादीशुदा है बल्कि उससे भी बढ़कर वह यह कहना चाहता था कि उसे कई और पुरुषों के संसर्ग का अनुभव है। मोरा के लिए वे क्षण बलात्कार के ही क्षण रह गये थे। हालांकि उसने हमेशा अपनी रज़ामंदी दिखाने की कोशिश की थी, जिससे कि उस पर असहयोग करने की आरोप न लगे।

मोरा अपनी ही रौ में बताती जा रही थी कि ऐसे ही क्षणों में राकेश ने कुछेक बार मेरा भी नाम लिया था। मोरा की ज़िन्दगी में मेरी इस तरह की उपस्थिति मेरे लिए हतप्रभ करने वाली लगी। मोरा ने कुछ ही दिनों राकेश के साथ बाद बिस्तर पर जाने से पहले कमरे की रोशनी गुल करने पर बहुत ज़ोर दिया था। उसका एक कारण तो यह था कि उसके खूबसूरत ज़िस्म को देखकर राकेश नर्वस सा हो जाता था। उसके आगे राकेश का ज़िस्म एकदम लिजलिजा और कालेपन की हद तक सांवला दिखाई देता था। दूसरे मोरा के ज़िस्म पर सुधीर की पिटाई के कुछ निशान अब भी मौजूद थे जिनके बारे में वह कोई न कोई फ़िकरा कस देता था। उसने बहुत कोशिश की थी कि वह किसी प्रकार राकेश के साथ तालमेल बैठा ले, मगर लगातार स्थितियां तनावपूर्ण और असह्य होती चली गयी थीं। वह उस दिन फट पड़ी थी जब उसने पाया कि आफ़िस से लौटने के बाद राकेश उसके कपड़ों में किसी ख़ास तरह की गंध या निशान खोजने की कोशिश कर रहा है। क्योंकि शायद वह अक्सर ऐसा करता था। मोरा ने अपने ज़रूरी सामान उठाए थे और बिना किसी पूर्व योजना के घर छोडकर निकल गई थी। बगैर कुछ बोले। राकेश के सामने ही। कुछ-कुछ झेंपा सा राकेश उसने अपना सामान समेटते हुए देख रहा था। उसने जाते समय भी कुछ नहीं कहा था।

बहुत बाद में वह आया था लेकिन वापस लौटने के उसके मनुहारों में बहुत दम नहीं था। वह जैसे पहले से ही उससे पीछा छुड़ाने की तैयारी करके आया था। वरना यह कैसे संभव था कि उस दिन बातचीत में यह बग़ैर किसी अड़चन के तय हो गया कि वे दोनों ही अपनी ज़िन्दगी अपने तरीक़े से गुज़ारने के लिए स्वतंत्र होंगे। यहां तक कि वे किसी दूसरे से शादी भी कर सकेंगे। एक महीने बाद ही राकेश ने धूमधाम से अपने मां-बाप की पसंद की उस लड़की से शादी कर ली थी जिससे करने की योजना उनकी उस समय भी थी जब राकेश ने उनकी पसंद को ताक पर रखकर उससे शादी की थी। दूसरे विवाह की विफलता उसके लिए ऐसा दु:स्वप्न साबित हुआ था जिसके बाद उसकी ज़िन्दगी में कोई और पुरुष नहीं आ सका था।

मोरा ने अपनी तनहा जिंदगी को लिख-पढ़ कर व्यस्त रखने की कोशिश की थी। उसने तीन उपन्यास भी इस बीच लिख डाले थे। हालांकि वे बेतरतीब से लगे थे और उसका कोई साहित्यिक दुनिया में प्रभाव पड़ेगा इस पर उसे भी शक था। इनके लेखन से यह ज़रूर हुआ कि उसकी उन व्यथाओं को अभिव्यक्ति मिल गयी थी, जिन्हें वह आसानी से किसी से कह सुन नहीं पाती। वह अपने बच्चों को भी सुधीर के पास से ले आयी थी। सुधीर ने फिर उनके प्रति कोई ललक नहीं दिखाई।

सुधीर को एक और बेटा हुआ था उसकी दूसरी पत्नी से अब वह अपनी ही दुनिया में जी रहा था जहां मोरा को कोई अस्तित्व नहीं था। मोरा के लिए बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और उनका कैरियर बनाने की चिंता थी। नौकरी वह अब भी कर रही थी। इस बीच मोरा की मां रत्ना चल बसी थी। असमय ही कैंसर उसे निगल गया था सुनकर मेरा मन उदासी से भर उठा था।

रत्ना के बारे में बताना भूल ही गया कि उसने मेरे उस एकांकी में मां की भूमिका अदा की थी। रिहर्सल के दौरान ही मेरी पहली मुलाक़ात हुई थी, लेकिन हम बहुत क़रीब नहीं आ सके थे। उसका कारण रीतू थी जिसकी क़रीबी के चलते बाकी दूसरी महिला कलाकारों से अपने आप ही एक दूरी सी बन गयी थी। अरसे बाद जब मुझे पाण्डुलिपि की आवश्यकता हुई तो मैंने उसकी खोज ली। पाण्डुलिपि तो नहीं मिली लेकिन उसके साथ दोस्ती अवश्य हो गयी थी। उसकी मौत के साथ ही पाण्डुलिपि मिलने का एक स्रोत खो गया था। उदासी का एक सबब यह भी था।

यहां मैं आपका ध्यान इस तरफ दिलाता चलूं कि ऐसा नहीं है कि मैं लगातार मोरा और उसकी मां के इर्द-गिर्द ही अपने जीवन के कई साल गुजारता रहा। उसकी बहुत सारी बातें मैं रौ में कह बैठा यह बात मैं स्वीकार करता हूं। इसमें भी कई बातें रह गयी हैं जिसको मैं संक्षेप में निपटा ही दूं ताकि मुझे भी यह कहीं मलाल न रह जाए कि मैंने कई बातें आपसे छिपा लीं। वह यह कि अंतिम बार मैं मोरा से उसी दिन मिला था जिस दिन उसने अपनी मां की मौत की खबर दी थी। मुझे उस दिन बहुत बड़ी शून्यता ने घेर लिया था। मुझे लग रहा कि मुझसे गलती यह हुई है कि मुझे मोरा के बदले रत्ना की ज़िन्दगी में पैठने की ज्यादा ज़रूरत थी। यह ऐसा ख़याल था जिस पर किसी प्रकार चाहूं भी तो अब अमल नहीं कर सकता था।

मेरी उदासी को मोरा ने भी भांप लिया था। मेरे आंखों से सहसा आंसुओं की धारा बह निकली थी। यह सब इतना अप्रत्याशित था कि मेरे लिए भी हैरत पैदा करने वाला था। और.. उसके बाद मोरा ने जो कुछ किया उसकी भी मैंने कल्पना नहीं की थी। खिड़कियों से पर्दे ठीक करने के बाद उसने मेरे कपड़ों में से ......... मैं जैसे एक दूसरी दुनिया में जा पहुंचा था। जहां अवसाद और आनंद में कोई फ़र्क नहीं रह गया था। बस हवा में तैरने का आभास भर था। मेरे आंखे मुंदी हुईं थीं। मेरी तंत्रा तब टूटी थी जब मोरा मेरे जिस्म पर से उतर चुकी थी। उसने अपने सारे कपड़े उतार दिए थे यह मुझे एक स्वप्न सा ही लग रहा था। यह ज़रूर कहना चाहूंगा कि उसने कमाल का फीगर पाया था।

यह पहली बार हुआ था जब हमारे सम्बंधों के बीच किसी गणित की उपस्थिति नहीं थी। कुछ और पाने-खोने की लालसा नहीं थी। बस सम्बंध था और उसका आभास था। पहली बार जब उससे इस तरह के जिस्मानी संबंध की चाहत दोनों में ही पैदा हुई थी लेकिन वह नैतिकताओं के बंधन में बंधी थी। दूसरी बार असफल विवाह के बाद जो स्थितियां बनी थी उसमें जोड़-घटाव की भी गुंजाइश थी। यह पहली बार हुआ था जब कोई और बंधन नहीं था। ।

मेरी इस अनुभूति को खुद मोरा ने चकनाचूर कर दिया था। उसने इन क्षणों को एक नया आयाम दे दिया जिसकी ओर मेरा ध्यान गया ही नहीं था। मेरे घर लौटने के बाद उसका फ़ोन आया था। मोरा ने बताया कि अपनी मां की मौत की ख़बर मुझे देने के बाद उसे मन के किसी कोने में एक अजीब सा सुकून मिला था। मोरा को लगा था कि उसकी प्रतिद्वंद्विता जो अपनी मां के साथ थी वह ख़त्म हो गयी। उसके मन के कोने में मैं केवल दो लोगों के बीच बंटा हुआ था। उसके व उसकी मां के बीच। मां का न रहना उसके लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण हो उठा था। उसने अपनी मां को कभी माफ़ नहीं किया था। उसे हमेशा लगा था कि उसका मेरी ज़िन्दगी में आना ही उसकी जिन्दगी की तबाही का कारण है। यदि रत्ना मेरी ज़िन्दगी में न होती तो मोरा ने अपनी ज़िन्दगी को तबाह करने वाले फैसले न लिए होते।

मोरा को पहली बार लगा था कि अब कोई बाधा नहीं रही वह मुझे पूरी तरह से पा सकती है। मेरी आंखों में आंसू देखकर उसे पूरा यक़ीन हो चुका था कि मेरे भीतर उसकी मां की जगह रिक्त हो चुकी है। और फ़ोन रखते रखते उसने यह भी पूछ लिया था कि 'वह तरीका कैसा लगा ?' मोरा ने थोड़ा झिझक के साथ बताया कि दरअसल वह एक दिन देर रात तक टीबी पर कैबल से फिल्म देख रही थी। एकाएक वैसी फिल्म चलती हुई देख ली थी। उसके दिल में यह ख्वाहिश जगी थी कि वह भी कभी ऐसा करके देखेगी। उसने अपनी सेहत पर भी उस दिन के बाद से ध्यान देना शुरू कर दिया था। यहां तक की उसने बाथरूम को खूबसूरत बनवा लिया था और उसमें आदमकद आईना लगवाया था। उसने यह भी बड़ी कातरता के साथ कहा कि उसे ज़िन्दगी में पहली बार सेक्स सम्बंधों में तृप्ति का अनुभव हुआ है। इस अनुभव के बाद ही जाना ही कि वह दो-दो वैवाहिक सम्बंधों के बाद भी यौन सम्बंध के सुख से वंचित ही रही थी। यह भी कहा था कि मेरे दांतों और नाखूनों के निशान उसके स्तन पर अंकित हो चुके हैं, जिसको देख-देख कर वह रोमांचित है। हालांकि मुझे यह कतई याद नहीं कि मैंने उन रोमांचक क्षणों में या कुछ किया था। मैं किसी और ही दुनिया में पहुंच चुका था, केवल मोरा की सिसकियां भर याद हैं जो मेरे कानों में एक संगीत की तरह ही उन क्षणों में गूंज रहीं थीं।

उसकी स्वीकारोक्ति को मैं इस प्रकार के सुख के दोहराव का निमंत्रण कतई न मान सका। मेरे लिए जो हुआ था वह पर्याप्त था। शायद उसके लिए भी हुआ ही कम नहीं था। तीसरे दिन में अमृतसर कूच कर गया था। जहां कत्याल से मिलने की इच्छा मेरे मन में जगी थी जिसने मेरे नाटक में बहुत ही छोटा रोल किया था। उसे अभिनय के लिए नहीं बल्कि इसलिए रखा गया था कि उसकी आवाज़ बहुत अच्छी थी। उसे ग़ज़ल के दो शेर उसमें गाने थे। मैं आपसे यह नहीं छिपा सकता कि मैंने मोरा के साथ गुजारे 'उस' अनुभव को अपनी रूह में कहीं सहेज कर रख छोड़ा था और जिससे जीवन के किन्हीं हताशा, निराशा के क्षणों में स्पंदित होता रहता था।

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