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Monday, November 15, 2010

खण्ड : दो

हरदीप मेरा पार्टनर
अमृतसर से मुझे एक दैनिक के लिए विशेष संवाददाता रखा गया था। कहने को तो यही कहा जा सकता है कि मैं नौकरी के लिए कोलकाता से पंजाब पहुंचा था। अख़बार का मुख्यालय दिल्ली था लेकिन मुझे अमृतसर के लिए इसलिए चुना गया था क्योंकि मैंने पश्चिम बंगाल के सीमांत क्षेत्र पर कोलकाता के एक दैनिक में धारावाहिक तौर पर लिखा था जिसकी अच्छी चर्चा थी। मुझे बांग्लादेश सीमा से अब पाकिस्तान सीमा की घुसपैठ की गतिविधियों पर नज़र रखनी थी। मैं जानता हूं कि मैंने अमृतसर जाना स्वीकार किया था तो उसकी एक वज़ह कत्याल भी थी। जिन दिनों नाटक मंचित हुआ था कत्याल अपने एक रिश्तेदार के यहां कोलकाता में रहकर पढ़ रही थी। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वह अमृतसर लौट गयी थी, अपनी मां के पास।
उसने इस बीच न सिर्फ संगीत की विधिवत तालीम ली थी बल्कि विश्वविद्यालय में बाकायदा संगीत की प्राध्यापिका हो गयी थी। साथ ही साथ उसने संगीत की महफ़िलों में गाना शुरू कर दिया था। कुछेक कैसेट आदि भी आ गए थे। टीवी पर भी उसके कार्यक्रम आते रहते थे जिसमें वह वीजे थी। इससे पहले की मैं कत्याल के बारे में कुछ कहूं यह बताना गैर वाजिब न होगा कि मैं अमृतसर में हरदीप का रूम पार्टनर रहा, जिसके कारण कत्याल से मेरे सम्पर्क वैसे हो गये जिनके लिए मैं कतई तैयार नहीं था।
हरदीप दिल्ली से इलेट्रानिक पत्रकारिता करके आया था और यहां वह सिर्फ़ वक्त काट रहा था। उसका इरादा था कि उसे जल्द फिर दिल्ली लौट जाना है। शुरू-शुरू में तो वह दो-तीन माह से अधिक टिकने के मूड में नहीं था। फिर उसने मूड बदल दिया था, और पंजाब में चुनाव निबटा कर ही लौटने की सोचने लगा था। उसे यहां भी पत्रकारिता का मज़ा आने लगा था। यहां हर शाम किसी न किसी मैखाने में कटती थी। जिन्ददिल लोग थे। यहां की पत्रकारिता कॉकटेल पाटयों के बगैर अधूरी थी। ख़बरें उसी दिन भेजने की हड़बड़ी नहीं थी। ज्य़ादातर पत्रकारों ने आपसी अंडर-स्टैंडिंग कर रखी थी कि कॉकलेट पाटयों वाली खबरें दूसरे दिन नशा उतरने के बाद भेजनी है। कोई एक भी न भेजे, जिससे कि दूसरे की ख़बर न पिटे, इसलिए यहां की शामें पत्रकारिता के दबावों से मुक्त थीं। मैं इन शामों का मज़ा ले पाया तो उसकी वजह हरदीप ही था।

हरदीप मंत्रियों तक पर सम्मोहन करना जानता था। दिल्ली में विभिन्न पार्टियों के नेताओं से मेल-मुलाक़ात का हवाला देकर वह अपना प्रभामंडल तैयार करने में क़ामयाब हो गया था। सुबह शहर के बड़े-बड़े नेता व अधिकारी उसके यहां अक्सर दस्तक देते रहते थे। वे अपना काम निकलवाने के लिए उसे खुश रखने की भरसक कोशिश करते। ऐसे लोगों के उपहारों का उसके यहां ढेर लगा होता था। हरदीप ने मुझे अपने साथ इसलिए भी रख लिया था क्योंकि उसने जल्द ही भांप लिया था कि उसकी और मेरी दुनिया एकदम ज़ुदा है। मुझसे उसे किसी प्रकार का ख़तरा नहीं हो सकता था। उसने मुझे अपनी सूची में शामिल कर लिया था। यह सूची की बात उसी ने मुझे बताई थी और उसे यह जानकर हैरत हुई थी कि मैं किसी वरिष्ठ पत्रकार की सूची में नहीं हूं। बगैर सूची में शामिल हुए ही मेरा विशेष संवाददाता बनना उसके लिए बहुत दिनों तक अविश्वसनीय बना रहा। उसी ने बताया कि पत्रकारिता अब मिशन नहीं रह गयी है। बाक़यदा यह अन्य व्यवसायों की तरह एक व्यवसाय हो गयी है। इस क्षेत्र में कोई अपनी प्रतिभा के बूते कायम तो रह सकता है मगर वह तरक्की नहीं कर सकता।
तरक्की का मतलब अख़बार के मालिकान की ओर से मिलने वाली मोटी तनख्वाहों और सुख-सुविधाओं से था। पत्रकारिता में अब कोई अकेले कुछ नहीं कर सकता। उसे अपने कुछ विश्वसनीय साथियों की आवश्यकता होती है। वे जहां भी जाते अपने साथियों के साथ। वह उन दिनों कई लोगों की सूची में शामिल था। न सिर्फ बड़े पत्रकारों के बल्क़ि उनके भी जो तरक्क़ी की असली रगों से परिचित हो चुके हैं मगर स्ट्रगलर हैं। उसी ने बताया कि था कि कभी भी किसी का सितारा चमक सकता है। वह दूसरों की सूची में शामिल होने के नाते तरक्क़ी पा सकता है। उसके मुताबिक उसने कुछ और सूचियों में भी मेरा नाम शामिल करा दिया था। जिसमें साहित्य एकादमी के पुरस्कारों की सूची भी शामिल थी। हालांकि मैंने अरसे से कुछ लिखा नहीं था मगर यदि अब कोई क़िताब आई तो मुझे उसकी जानकारी कुछ लोगों को देनी है, यह उसकी हिदायत थी। संक्षेप में यह कि ऐसा कोई काम नहीं था, जो नहीं करवा सकता था। उसी ने बताया था कि वह अपने गांव का सबसे निकम्मा युवक माना जाता था। पिता ने उसके निज़ात पाने के लिए दिल्ली भेजा था जहां जेएनयू से उसने एमए करने की कोशिश की थी। पढ़ाई के अलावा उसने वहां सब कुछ किया और पत्रकार बन गया। हरदीप का कहना था कि पत्रकारिता के मज़े केवल कांग्रेस बीट देखने में है। भाजपा को शाही अंदाज में शासन सीखने में अभी वक़्त लगेगा। जो ठाट आज पूर्व कांग्रेसी भोग रहे हैं वह वर्तमान भाजपा नेताओं को नसीब नहीं कहां। अब अमृतसर के सर्किट हाउस से ही अंदाजा लगा लो, कांग्रेस के जमाने में यहां का खर्च या था और आज क्या है। यह तो चाय-चूय पी लेते हैं और कभी-कभार शाकाहारी भोजन कर लिया बस। कांग्रेसी राज में यहां दारू की नदियां बहती थीं। मुर्गे के कई व्यंजन बनते थे।
आज भी यहां का कांग्रेस कल्चर मरा नहीं है। किसी कांग्रेसी नेता से पूछ लो अगर उसने मौज मज़े के तमाम इन्तज़ाम कर रहे हैं। वह कांग्रेस का पक्का मुरीद था। देश भर में जहां रहेंगे कांग्रेस ही देखेंगे। पते की बात यह है कि कांग्रेसी नेता अपने खिलाफ़ लिखने वालों से भी खुश रहते हैं। चर्चा तो चर्चा चाहे जिस रूप में रहे। चर्चा के बिना नेता मर जाता है। इमेज का क्या है वह बनती बिगड़ती रहती है मगर जनता की नज़र में नेता बने रहना चाहिए।

मेरे लिए उसकी हिदायत इतनी भर थी कि जब अपनी किसी मनपसंद महिला के साथ कमरे में हो तो मैं उसे डिस्टर्ब न करूं। चूंकि कमरा एक ही था और जिसका किराया हमें नहीं देना पड़ता था। रेलवे के एक अधिकारी का कमरा उसने दोस्ती में ले लिया था। जहां वह कभी-कभार अपनी माशुका के साथ आता था। बाक़ी दो कमरे वहां और थे जो अधिकारी ने किराए पर एक परिवार को दे रखा था। उसने खुद शहर में अपना आलीशान मकान बनवा लिया था, जहां वह रहता था। मेरी भी उससे गुजारिश थी कि वह रात में ऐसी दोस्त को कमरे में न लाए, मगर वह अधिक दिनों तक अपनी बात पर क़ायम नहीं रह सका था। मुझे वह चांदनी रात आज भी याद है जब हरदीप ने उसकी माशुका को रात में बुला लिया था जिसने हमें कमरा रहने के लिए दिया था। वह उस रात काफी नशे में था। मुझे सोता देखकर वह अपनी चारपाई कब बाहर आंगन में उठा ले गया था इसका पता मुझे थोड़ी देर बाद चला जब वह चांदनी रात में उसके साथ हमबिस्तर था। मैं बाथरूम जाना चाह रहा था लेकिन उसके लिए मुझे आंगन में जाना पडता। हरदीप को इस समय डिस्टर्ब करके उसे या शर्मिन्दा करता खुद शर्मिन्दा होने से बचना चाहता था। कमरे से ही हरदीप और उस महिला की हरकतें साफ-साफ तो नहीं मगर काफी हद तक दिखाई दे रही थीं। दिखाई देने से उन्हें कोई गुरेज हो यह कतई नहीं लग रहा था। गर्मी का मौसम था और काफी उमस थी। उन्होंने किसी तरह का आवरण स्वीकार नहीं किया था। चादर आदि ओढ़ना तो दूर महिला तक ने अपने कपड़े उतार कर फर्श पर रख दिए थे, जो गौर से देखने पर दूर से ही दिखाई दे जा रहा था। रात काफी देर तक चारपाई के बजने की आवाजें आती रहीं। रात के सन्नाटे में उसके जिस्मानी धक्के की आवाज़ें गिनी जा सकतीं थीं। हालांकि हमारे और पड़ोसी के कमरे जो आंगन में ही खुलते थे जिसमें चौकोन पारदर्शी कांच लगे हुए थे, जिनसे उनकी हरकतें दिखाई दे रहीं थीं। आवाज़ें बार-बार उनकी हरकतों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट कर रही थीं। पड़ोसी की जवान होती दो बेटियां भी थीं। जिनके बारे में यह सोचकर अजीब लग रहा था कि या वे इन हरक़तों को नहीं देख रही होंगी? मेरा अनुमान था कि तड़के ही वह यहां से निकल जाएगी, मगर वह देर से गयी। मैं जब ड्यूटी के लिए निकला तो हरदीप उसके लिए बाहर से नाश्ता लाने के लिए स्कूटर से रवाना हो चुका था।

वह हर हालत में सामान्य बना रहता था। और जब मैंने बताया कि अमृतसर में मेरी भी एक महिला मित्र है तो वह चौंक पड़ा था। मैं आपको बता दूं कि हरदीप से कत्याल के बारे में बताने से पहले मैं उसके घर जाकर उससे मिल आया था। उस शाम वह अकेली थी, लेकिन मुझे उसके अकेले होने का अहसास नहीं हुआ। घर में एक 7-8 साल का बच्चा था जो मेरे पहुंचने के बाद घर से बाहर निकला था। मुझे लगा था कि वह कत्याल का ही होगा, शायद किसी काम से उसे भेजा हो। मगर वह काफी देर तक नहीं लौटा था। दूसरे चूंकि छह बजने जा रहे थे मुझे लग रहा था कि उसका पति ड्यूटी से लौट कर आता ही होगा। चलते- चलते मुझे पता चला था कि उसने अभी तक शादी नहीं की। यहां वह अपनी मां के साथ ही रहती है, जो दरबार साहिब मत्था टेकने गई हैं आती ही होंगी। कत्याल ने एक आलीशान फ्लैट खरीद रखा था।
उसकी मां ने ही बाद में बताया कि करीब 14 लाख रुपये लग गए फ्लैट को पूरी तरह से ठीक-ठाक कराते हुए। जब मैं उसके फ्लैट से बाहर निकल चुका था तब मुझे एकाएक लगने लगा कि मुझे उससे बहुत सी बातें करनी चाहिए। या, यह नहीं सोचा था। केवल इच्छा जगी थी कि उससे बातें की जाएं।
फिर में गाहे-बगाहे फोन करता रहा। असर फोन पर यह कह दिया जाता कि वह घर पर नहीं है। जब मैं कोई दिन तय करता कि अमुक समय पर मिलने आ रहा हूं तो भी वह उस समय कहीं और व्यस्त होने पर असमर्थता जताती। फ़ोन ज्यादातर उसकी मां ही रिसीव करती थी। उसकी बुरी लत यह थी कि सबसे पहले वह फ़ोन करने वाले का नाम पूछती थी। मुझे तो हर बार अपने नाम के साथ बताना पड़ता था कि पत्रकार हूं और कोलकाता से आया हूं। एक दिन उसके घर की ओर से गुजरते हुए मुझे उसकी याद आई और मैंने उसके घर की कॉलबेल बजा दी। उसने छोटी स्कर्ट और टी शर्ट पहन रखी थी। इन कपड़ों में वह पहली बार मेरे सामने आयी थी सो थीड़ी झिझक व हैरत के साथ मुझे देखा था फिर कमरे में आने का इशारा किया था। उसने घुसते ही बता दिया था कि दूसरे कमरे में उसकी मां हैं। मेरे यह बताने पर कि मैं कोलकाता जा रहा हूं उसने वहां से पोले व शंखे की चूड़ियों की फ़रमाइश की। उसने दो जोड़ी चूड़ियां मंगाई थी। मुझे अजीब लगा था क्योंकि बंगाल में एक तो ये चूड़ियां व्याहताएं ही पहनतीं हैं जो उनके सुहागिन होने की प्रतीक मानी जाती हैं, दूसरे यह दोनों हाथों में एक-एक ही पहनी जाती हैं। उसने बताया कि वह उन्हें फ़ैशन के तौर पर पहनना चाहती है।
दूसरी जिस बात ने मुझे अच्छा-खासा उद्वेलित कर रखा था वह यह कि उसने मुझसे वादा किया था कि कोलकाता से लौटने के बाद वह मेरे साथ दरबार साहिब में कारसेवा करने ढाई बजे रात को जायेगी। वहां उस समय कारसेवा करने से मन्नतें पूरी होती हैं। मेरे लिए मन्नतों के पूरा होने का कोई आकर्षण नहीं था लेकिन उसके साथ देर रात को स्वर्णमंदिर जाना वाकई माने रखता था। सच कहूं तो दरबार साहिब में प्रवेश करते ही एक अजीब सा सुकून मिलता था। रात में विभिन्न रंगों की रोशनी का प्रतिबिम्ब वहां के पवित्र सरोवर के जल में दिखाई देता, जिससे मन मुग्ध हो जाता। घंटों परिक्रमा स्थल पर साफ सुथरी फर्श पर बैठना मुझे अच्छा लगता था। हवा में तैरते रहते हैं शास्त्रीय संगीत के रागों पर आधारित गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित भजन। आज भी जैसे मन के किसी कोने में रचा बसा है वहां सुना भजन 'किरपा किरपा करो। किरपा करो। मेरे अवगुन ना विचारो किरपा करो।' बग़ैर किसी लाग-लपेट के सीधे याचना। बगैर अपनी पात्रता का दम भरे। मैं मत्था टेकता था। मन में करुणा भी उपजती थी, लेकिन कोई मन्नत काफी सोचने के बाद भी नहीं मांग पाया। सोच नहीं पाया कि मैं आख़िर या पाना चाहता हूं? तय कर लूं तब तो मांगूं। यह या आसान है तय कर पाना?
मेरे लिए वे सदैव इर्ष्या के पात्र रहे जिन्हें पता था कि वे या पाना चाहते हैं।.. और ऐसे लोगों की कतार थी। यही नहीं मियां गालिब के शब्दों में 'हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले' वाले लोग भी थे।
ग़ालिब की बात चली तो याद आया कि हरदीप अक्सर अमृतसर की गलियों में स्कूटर पर निकलते वक्त जिंसधारी युवतियों को देखकर आहें भरा करता था और कहता था कि ग़ालिब की ट्रेजडी यह है कि वे अंतिम समय में तुम्हारे कोलकाता गये। और वहां से चोट खाकर लौटे तो उनकी शायरी में नया दम ख़म आया। गालिब को अमृतसर की गलियों के भी चक्कर लगाने चाहिए थे। यहां का हुस्न अपना ज़वाब नहीं रखता। चंडीगढ़ से दिल्ली तक मुंबई से कोलाकता तक ऐसी सुंदरियां कहीं नज़र नहीं आयेंगी। वह कहता कि अमृतसर कुछ दिन और रहने का मन इसलिए भी बनाया है। वह हैरत प्रकट करता कि यहां से मात्र 80 किलोमीटर दूर है जालंधर मगर वहां ऐसी सूरतें देखने का तरस जाते हैं। मुझे तो शुरू-शुरू में जालंधर शहर का नाम लेते ही राक्षस जालंधर की याद हो आती थी...।

मैंने दरअसल ज़िन्दगी को जिस तरह भी जिया उसमें कामनाओं का बहुत कम योगदान रहा है। जो कुछ पाया, पाने के बाद मुझे लगा कि हां, हां, यही पाना चाहता था। कुछ खाया और अच्छा लगा तो महसूस किया कि हां, यही स्वाद था, जिसका इंतज़ार मुझे रहा है।

.. तो बात चल रही थी दरबार साहिब की। लोग मुझसे कहते भी कि यार हिन्दू होकर दरबार साहिब में पड़े रहते हो लेकिन सच कहूं कि अन्य तीर्थ स्थलों पर उस आनंद और शांति की अनुभूति मुझे कभी नहीं हुई जो यहां सहज थी। दरबार साहिब में मत्था टेकने के बाद जिस किसी धर्म स्थल पर जाता मुझे दरबार साहिब की ही याद आती थी। श्रद्धा के वक्त दूसरे की याद समर्पण में बाधक बनती है। श्रध्दा व समर्पण के लिए तो यह चाहिए कि जहां जाओ वहीं का हो जाओ। वहीं समर्पित हो जाने का मन करे। यह भूलकर की तुम कौन हो और वहां क्यों आए हो?
और ऐसा मेरे जीवन में कई बार हुआ है। जब मैं तमाम प्रश्नों और चिंताओं से दूर कहीं खो गया। समय, स्थान और निजत्व सब कुछ बिसरा कर। इसमें अजीब सी शांति मिलती है। कई बार घबरा भी गया, नहीं इतनी शांति नहीं चाहिए। मुझे बेचैन दुनिया चाहिए। बेचैन करने वाली चाहतें मुझे जीवन में अपनी ओर बराबर आकृष्ट करती रही हैं।

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