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Monday, November 15, 2010

कत्याल की तल्ख़ दुनिया में मैं

यह स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं कि कत्याल ने भी मेरी इस बेचैन यात्रा में अपनी भूमिका निभाई है। उसकी मां ने उसे बचपन से ही एक अजीब ढंग के माहौल में पाला था। तीन दशक पहले जालंधर से कनाडा जाकर बसे अपने पिता के पास रहकर कत्याल की मां महिंदर ने पढ़ाई की थी। शादी अमृतसर में एक परंपरागत सिख परिवार में कर दी गयी थी। उन्हें जिस तरह की आज़ादी चाहिए थी वह उन्हें नहीं मिली थी। वे शादी के बाद भी जिंस पहनना चाहतीं थीं। कभी-कभार जीन और बीयर का भी उन्हें शौक था। पीने का शौक तो उनकी मजबूरी बन गयी क्योंकि घर में हर शाम शराब की बोतल खुल जाती थी। वह अपने टूटे हुए दिल को तसल्ली देने के लिए पति के साथ जाम टकराने लगी थी। महिंदर ख़ुद अपनी पहचान बनाना चाहती थीं। उन्हें ख़ुद को अपने पति के नाम से पहचाने जाने से नफरत थी, लेकिन पिता की इच्छा थी कि उनकी बेटी अपनी परम्परा से जुड़ी रहे, क्योंकि मोहिंदर की मां ने कनाडा के रंग में खुद को इस कदर रंग लिया था कि उन्हें तलाक दे दिया था। मोहिंदर की मां के नये पति ने मोहिंदर को अपने पास रखने से इनकार कर दिया था। महिंदर अपने पिता के अरमानों पर पानी फेरना नहीं चाहती थी। दूसरे उसे अपने रूप के जादू पर गुमान था। उसका ख़याल था कि वह उसी के बूते अपने भारतीय सरदार पति को मना लेगी और वे मनचाही ज़िन्दगी जी सकेंगे। वह इसमें बुरी तरह नाक़ामयाब रहीं। उन्होंने विद्रोह के नाम पर यही किया कि अपनी बेटी को आधुनिक बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।

अमृतसर में रहने वाले ज्यादातर सिख परिवारों के लोग कनाडा आदि में रह कर वहां अपना रोजगार कर रहे हैं, जिसका असर यहां भी देखने को मिल रहा था। एक ओर यहां के युवा मानसिक तौर पर पंजाबी संस्कारों में पल रहे थे वहीं कनाडा की चकाचौंध वाली संस्कृति का भी असर उन पर है। वहां से लौटने वालों से वे दिखावे आदि में प्रतियोगिता करते दिखाई दे जाएंगे। कत्याल को उसकी मां ने केवल बाहरी नहीं बल्कि मानसिक तौर पर कम उम्र में ही आज़ाद कर दिया था। महिंदर ने बेटी को पिता की छाया से बचाने के लिए कोलकाता एक रिश्तेदार के यहां रहकर उसके पढ़ने का इंतजाम करवा दिया था। यह भी संयोग ही कहा जायेगा कि कत्याल जब कोलकाता से संगीत में एमए की पढ़ाई पूरी कर अमृतसर लौटने को थी कि पिता की एक कार दुर्घटना में मृत्यु हो गयी। कत्याल ने मां को ध्यान में रखते हुए अमृतसर में ही रहने का मन बना लिया। यहीं एक कॉलेज में वह संगीत की प्राध्यापिक हो गयी।

अमृतसर का जीवन उसका अपना जीवन नहीं था। वह जीवन था जो उसकी मां जीना चाहती थी। बेटी की देह में उसकी मां की आत्मा थी। वे अपनी कामनाएं उसी से पूरी कर रही थीं। वे अजब-अजब तरह के फ़ैशन वाले हेयर स्टाइल की पत्रिकाएं ले आतीं। फिर कत्याल को ब्यूटीपार्लर में जाकर वैसे ही बाल कटवाने पड़ते थे। वे देश-विदेश से आधुनिक फैशन के पहनावे उसके लिए जिससे-तिससे मंगवातीं रहतीं। कई बार उसे बेहद छोटे व तंग कपड़ों में घर में रहना पड़ता। जब भी वह कपड़े बदलती वे बराबर अपनी नज़रें उस पर गडाए रखतीं। वे चाहती थीं कि कत्याल का कुछ भी उससे छुपा न रहे। वह उसके मन के कोने में भी झांकने की कोशिश करती। हर बात कुरेद-कुरेद कर पूछतीं। उनके पास इतना धैर्य और उत्सुकता थी कि हर बात को वे बग़ैर विस्तार के जाने चैन से नहीं रह सकती थीं। कई बार तो एक ही घटना के बारे में तक पूछतीं जब तक संतोष न हो जाये। जैसे वे सुनकर ही उन क्षणों को जी लेने की कोशिश करतीं जिन्हें उनकी बेटी ने जिया हो। भरसक वे कोशिश करतीं कि वे अपनी बेटी के साथ साये सी लगी रहें। ऐसा नहीं कि वे उसे किसी काम में बाधा बनने की कोशिश करती हों। नहीं।

यही उनकी ख़ूबी थी जिस पर कत्याल मन ही मन रीझती और महसूस करती कि वे अपनी बेटी को बहुत ज़्यादा चाहतीं हैं लेकिन वे एक मानसिक रोग का शिकार हैं। उसने कोशिश भी की कि मां इसे समझे कि उसे एक ख़ास तरह की मानसिक बीमारी है और वह इस बारे में किसी डॉक्टर की राय ले। इस बात को उन्होंने कतई तूल नहीं दिया। वह जबरन अपनी मां को किसी डॉक्टर को दिखा कर उसे मानसिक सदमा नहीं पहुंचाना चाहती थी क्योंकि वह जानती थी कि उसके पापा के साथ उसकी मां की ज़िन्दगी खुशहाल नहीं गुजरी है। उसके पापा के गुजर जाने से उसकी मां कतई दुखी नहीं थी।
यह जरूर आभास दिया था कि दुर्घटना होनी ही थी तो और पहले क्यों नहीं हुई। उनकी इस प्रतिक्रिया से वह भीतर ही भीतर दहल गयी थी। कई बार तो उसे लगता की वह मां की ममता की खिल्ली उड़ाने में लगी है क्योंकि उसने उसकी हरेक ख़्वाइश पूरी की है। मां ने उससे बढ़कर यह किया कि उसकी अपनी ख़्वाइशों के लिए उसके जीवन में जगह ही नहीं बनने दी। मां सोचती थी कि बेटी वह सोचे जो वह सोचती है। वह चाहे जो वह चाहती है। मां ने हमेशा की कोशिश की कि वह उसकी सखी बने, उसकी हमराज़ बने। कोलकाता रहने के दौरान जब भी वह घर लौटी तो मां उसके साथ उसी तरह सोती थी जैसे की उसके बचपन में। उस समय उसे लगता था कि चूंकि वह उससे दूर रहती है इसलिए उसकी निकटता चाहती है लेकिन जब वह अमृतसर में रहने लगी थी तब भी उसकी मां ने यह क्रम जारी रखा। उसने कुछेक बार कहा कि वह अकेले सोना चाहती है लेकिन मां का मायूस चेहरा देख उसने अपनी बात वापस ले ली। मां न सिर्फ उसके साथ सोती बल्कि उससे एकदम लिपट कर सोती। जैसे वह अब भी एकदम छोटी बच्ची हो। कभी-कभी तो वह उसके सीने पर सिर रखकर उसके हृदय की धड़कन तक सुनने की कोशिश करती। कई बार तो नींद में उसे यह भी आभास हुआ कि वह उसके ज़िस्म को सहला रही है।
उसे यह भी अजीब लगता था कि मां उसकी उपस्थिति में कपड़े बदलते समय उसे पूरी तरह से अनदेखा कर देती और कई बार तो वह अपने पूरे कपड़े उतार कर कोई खास सूट आलमारी से ढूंढने लग पड़ती। उसे अजीब ज़रूर लगता लेकिन यह बात ज़रूर मन में उठती कि उसकी मां का फीगर देखने के बाद कोई उसकी उम्र का अनुमान नहीं लगा सकता। वह उसकी बहन ही लगेगी। यह सब मुझे कत्याल ने विस्तार से बताया था बिना यह सोचे कि कौन सी बात मुझे बतानी चाहिए थी और कौन सी नहीं।
वह अपने मन का बोझ हल्का कर लेना चाहती थी। शायद मैं माध्यम भर था। उसे लगा था कि वह ये बातें मुझसे नहीं बता पायी तो फिर कभी और किसी को बताने की कोई गुंजाइश भी नहीं है। कत्याल ने ही कुछ दिन बाद यह भी बताया कि उसकी मां ने उसे बग़ैर किसी पुरुष के अपनी ज़िन्दगी गुज़ारने की मानसिकता तैयार करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रखी थी। उसे हमेशा यह भय सालता रहता था कि कहीं उसकी बेटी के जीवन में कोई पुरुष न आ जाये, क्योंकि पुरुष के आते ही वह उसी में खो जायेगी। और वे हमेशा-हमेशा के लिए तनहा हो जायेंगी। अपनी मां की तरह वे दुबारा शादी इस पंजाबी परिवेश में करने से रहीं। दूसरे उन्होंने पुरुष का जो रूप निकट से देखा था उसने उनके मन में वितृष्णा भर दी थी।

उन्होंने कत्याल को समझाया था कि विवाह का सम्बंध स्त्री के लिए चाहे जितना लुभावना लगता हो मगर वह उसके लिए असर आत्मघाती साबित होता है। कम से कम भारत में तो यह निश्चित तौर पर। यह बात गौर करने की है कि यहां विवाह को जिस प्रकार के सामाजिक मूल्य गढ़े गये हैं उसके चलते यहां की महिलाओं ने अपने शोषण को सामाजिक मूल्य के तौर पर स्वीकार कर लिया है। यहां पूरा माहौल स्त्री शोषण को इस प्रकार महिमामंडित करता रहा है कि शोषण भी स्त्री के लिए आनंददाई महसूस होता है। बचपन से ही चेतन व अवचेतन दोनों तौर पर उसे गुलामी के आनंद का अभस्त करने की कवायद शुरू हो जाती है। वह अपने सपनों तक में भी किसी न किसी गुलामी को चुनती रहती है। यहां तक की भारत की कई तरकी पसंद महिलाएं भी बेहिचक बयान देती नज़र आईं कि वे चाहती हैं कि उनका पति भी कभी-कभार उन्हें पीटे।

वे चाहती थीं कि कत्याल विवाह की गुलामी मोल न ले। अव्वल तो वे यह मानतीं हैं कि एक स्त्री बगैर पुरुष के भी रह सकती है। उन्होंने उसे खास तौर पर 'फायर' फिल्म दिखायी थी और साफ़ तौर पर कहा था कि यह स्त्री का स्त्री के बीच का सम्बंध उन्हें अधिक मानवीय लगता है। स्त्री का दर्द स्त्री ही समझ सकती है। दूसरे इसमें किसी तरह की झंझट नहीं रहती। यह जायज़ कैसे माना जाये कि एक पुरुष का संसर्ग पाने के स्त्री अपना घर-परिवार अपने माहौल को छोड़कर ख़ुद को पुरुष की व्यवस्था के हवाले कर दे। दो रोटियों के लिए उसकी झिड़कियां सुनती रहे। और उसकी सम्पत्ति बनकर रहे।
पुरुष ने स्त्री को बड़ी चालाकी से खिलौना बना लिया है। वे चाहती थीं कि बेटी उसके अनुभवों से सबक ले। उसकी सोच से दिशा पाये। यदि ज़रूरत महसूस हो तो वह किसी पुरुष का सामिप्य ले सकती है, मगर उससे दिल न लगाये। पुरुष स्त्री से केवल खेलना जानता है। वह भी उससे खेलना सीखे।

यह सब कत्याल ने मुझे उस शाम कहा था जिस शाम उसने व्यास नदी में उन कंगनों में से एक सेट प्रवाहित कर दिया था जो उसने मुझसे कोलकाता से मंगवाया था। एक मुझे वापस लौटा दिया था और कहा था कि मैं उसे उसकी अमानत समझ कर रखूं। शायद कभी वापस वह मांग सके जिसकी की कोई संभावना उसके जीवन में नहीं है। दरअसल वह अभिशप्त है एकाकीपन झेलने के लिए। वह उस अभिशाप की छाया अपने जीवन पर भी देखती है, जिसका कुछ असर उसकी मां पर है। अमृतसर से संभवत: पैंतीस-चालीस किलोमीटर होगा व्यास। कत्याल की मां अमेरिका गयी हुई थी अंतरराष्ट्रीय महिला सम्मेलन में हिस्सा लेने। फ़ोन पर उसने दरबार साहिब के पास बुलाया था वहां वह अपनी मारुति से आयी थी। मैं बग़ैर उससे कुछ पूछे गाड़ी में बैठ गया था।

रास्ते में मैं ख़ुद बहुत कम बोला था। वही अपनी रौ में बोले जा रही थी। कब हम व्यास पहुंचे यह पता ही नहीं चला था। फिर व्यास नदी के तट पर एक पत्थर पर हम दोनों देर तक बैठे रहे। हमारे बीच व्यास नहीं, रावी दरिया का जिक्र था। कैसे रावी पार कर आये थे लाहौर से 1947 में उसके दादाजी। देश-विभाजन के समय की तल्ख़ चर्चा उसने छेड़ दी थी।

उसके दादाजी लाहौर के रहने वाले थे। जब लोग उस पार से भागने लगे थे। उन्होंने भी वहां से इस पार के लिए कूच करते समय जो किया था वह दिल दहला देने वाला था और जिसके लिए वे यहां कुछ सालों बाद सम्मानित भी किए गये थे। यह बताते हुए उसकी आवाज़ में गहरी घृणा थी। उसके दादाजी ने अपनी जवान बेटियों ही नहीं बल्कि सात साल की आख़िरी बेटी को अपनी तलवार से काट दिया था। वे बाद के दिनों में शान से कहते थे कि उस पार वाले उनकी बेटियों की इज्ज़त से नहीं खेल पाये। उन्होंने यह गुंजाइश ही नहीं रहने दी थी। वे वहां से सब कुछ ख़त्म करके चले थे। हां, उन्होंने कभी यह स्वीकार नहीं किया कि उनकी पत्नी ने अपनी आख़िरी बेटी का क़त्ल होते देख विद्रोह कर दिया था और उनकी तलवार छीन कर उन पर हमला बोल दिया था। उनकी गरदन साफ बच गयी थी और एक बाज़ू कटते-कटते रह गया था। बांह में लगी तलवार की चोट खाये वे अपनी ही पत्नी से जान बचाकर भाग निकले थे। इस जख़्म को उस पार वालों के हमले के रूप में काफी दिनों तक प्रचारित करते रहे थे। आखिरी सांस लेते समय उनकी आत्मा पर बड़ा बोझ था और उन्होंने वह बोझ हटाने के लिए अपने बेटी व छह माह पहले आयी नयी-नवेली पुत्रवधू के सामने कबूल कर लिया था।
जिन दिनों महिंदर की शादी हुई थी वे उन दिनों उसी घर में रह रहे थे जिन्हें उनके ससुर ने लाहौर से अमृतसर आने के बाद खाली देखकर और लोगों की तरह ही दख़ल कर लिया था। जिसे बाद में सरकार ने पाकिस्तान में उनकी संम्पत्ति के बदले उन्हें अलाट कर दिया था। वह किसी मुसलमान का मकान था। विभाजन के पहले अमृतसर के शरीफपुरा, तहसीलपुरा, हुसैनपुरा व लाहौरी गेट ऐसे इलाके थे जहां लगभग नब्बे फीसदी आबादी मुसलमानों की थी। विभाजन की त्रासदी के शिकार लोगों ने उस पार खून खराबा, लूट और आगजनी देखी लेकिन जब इस पार आये तो उनका दिल और दहल गया था। उन दिनों खूब वर्षा हुई थी। चारों तरफ पानी भरा था और पानी में जहां-तहां लाशें ही लाशें थीं। जाने वालों ने खूब मार काट मचाई थी और उसका शिकार भी हुए थे। यहीं के छेहरटा इलाके में तो जाने वालों ने बिजली के नंगे तार छोड़ गये थे जिनसे उस पार से आने वालों में से कई की जान जाती रही। हर तरफ पानी-पानी था मगर प्यास बुझाने के लिए कई लोगों ने बच्चों की पेशाब तक पी। उसका कारण यह था कि हर कुआं लगभग लाशों से पटा पड़ा था। नलकूप नहीं थे। लाशों के सड़ांध की गंध हर जगह थी। कत्याल ने अपनी मां से सुना था यह सब। उसी ने बताया था कि बंटवारे का असली शिकार दरअसल औरतें ही हुई थीं। दोनों ही तरफ़। बाहर वालों से भी वे महफूज नहीं थीं और कब घर का आदमी उसका गला दबा देगा यह भी निश्चित नहीं था। इस विपदा के दौर में पता नहीं मर्दों ने इज्ज़त की कौन सी परिभाषा गढ़ थी। ख़ुद तो जान बचाकर भाग निकलते थे। औरतों की हिफ़ाजत नहीं कर पाने पर उनका गला रेत देते थे। पता नहीं देश विभाजन कर अपना हिस्सा चाहने वालों को हर लाचार औरत की देह से भी हिस्सा क्यों चाहिए था?
कत्याल के दादाजी ने हुसैनपुरा में जिस बंद इमारत को बाहर से पसंद किया था और जिसका ताला तोड़कर वे घुस गये थे उसमें आंगन तो था मगर घर से बाहर कोई खिड़की नहीं खुलती थी। उसकी बनावट कुछ ऐसी थी कि देखकर अनुमान लगाया जा सकता था कि वहां औरतों के लिए आज़ादी केवल आंगन भर की थी। वही उनकी बाहरी दुनिया रही होगी। उसी मकान में हादसे के तीन साल बाद उसके दादाजी ने फिर शादी कर ली थी, जिससे उसके पिता पैदा हुए थे। और उन्होंने बड़ी आसानी से बीते दिनों को भुला दिया था। केवल मरते समय उन्हें अपना किया-धरा याद आया था।
उस घर में कई बार उसकी मां कुछ विशेष संकेतों को खोजने की कोशिश करती रही थी। उसे बहुत सन्नाटे में किसी औरत के रोने की आवाज़ सुनाई देती और वह उनका साथ देने लगती। कत्याल की मां के अनायास विलाप से कत्याल के पिता हैरत में पड़ जाया करते थे। कत्याल के पिता की मौत के बाद उसकी मां ने वह मकान बहुत कम क़ीमत पर बेच दिया था। कोई मोल-भाव नहीं किया था। मां ने उसे बताया था कि उसे उस घर में अक्सर लगता रहता था कि वहां भी वही हादसा हुआ है जो उसके ससुर कर चुके हैं। यहां उस पार जाने वालों ने भी अपने घर की औरतों का खून बहाया होगा।

कत्याल के साथ देर तक मैं उस शाम व्यास के किनारे बैठ रहा। उसकी बातों में खोया रहा। उसने उस शाम मुझे कुछ भी कहने का अवसर नहीं दिया था। मैंने जब उसके कहा कि अब अंधेरा घिरने लगा है हमें लौट चलना चाहिए तो उसकी तंत्रा टूटी। फिर वह बड़ी देर तक मेरी आंखों में झांकती रही थी।
वह बोली-''मैं तुमसे आज अपना सब कुछ बांट लेना चाहती हूं अतुल। मैं किसी और से उतनी सहज नहीं हो पायी, जितना आज तुमसे हो चुकी हूं। मैं अपना दर्द किसी से कहना चाहती थी। और मेरी तमाम स्वीकारोक्तियों में कहीं भी छल नहीं है। कोई बनावट नहीं।''
-''क्या सोच रहे हो?'' फिर मुझे एकदम खामोश देखकर पूछा था। और अपने होठ मेरे होठों पर रख दिया था। जो कांप रहे थे।
-''मेरी मां ने कहा था कि कभी किसी पुरुष के निकट न जाना। मैं आज अपनी मां की उम्मीदों पर पानी फेर रही हूं। लेकिन सच, फिर मेरी ज़िन्दगी में कोई पुरुष नहीं आयेगा तुम्हारे सिवा, यह मेरा मुझसे ही वादा रहा। इसका गवाह यह व्यास का जल है। मैं मानती हूं कि नदी की गवाही सबसे बड़ी गवाही होती है। और उसने पोले संखे की चूड़ियों का एक सेट व्यास की धाराओं के हवाले कर दिया था। -''अब मेरी चूड़ियां हमेशा के लिए महफूज़ हो गयीं। एक सेट तुम रख लो। इन्हें देखकर तुम्हें मेरी याद आती रहेगी।''

अब अंधेरा घिर आया था। पानी के बहाव की आवाज सुनाई दे रही थी-''चलें?'' उसने सवाल सा पूछा था और फिर खड़े होकर मुझे हाथ का सहारा देकर उठाया था। वह ड्राइविंग सीट पर जाने के बदले पिछली सीट की ओर बढ़ी थी और मेरा हाथ पकड़ कर उधर ही खींचा था। इसके बाद उसके गर्म होठ फिर मेरे होठों और गरदन पर थे। कार के दरवाजे खुले थे। और हम देर तक न सिर्फ आलिंगनद्ध रहे। वह मुझे अपने ज़िस्म में उतारती चली गयी। घंटे भर बाद हम कत्याल की कार से अमृतसर लौट रहे थे। ड्राइविंग भी वही कर रही थी। वह काफी खुश नज़र आ रही थी। वह रह-रह कर मेरा हाथ अपने वक्ष से हटा देती थी।

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