प्रकाशक

आकाशगंगा प्रकाशन,4760-61,23अंसारी रोड,दरियागंज, नयी दिल्ली-110002 मूल्य-150 रुपये

Monday, November 15, 2010

बड़े बेआबरू होकर ..

सब कुछ शायद कुछ दिन और ठीक-ठाक रहता अगर मैंने अपने बारे में बेहद मामूली सी जानकारी उसे खुद--खुद उस समय न दी होती कि 'मैं अमृतसर में हरदीप का रूम पार्टनर हूं।' मेरी बात सुनकर उसके ब्रेक चीखे थे। कार खड़ी हो गयी थी और उसने भी लगभग चीखते हुए मुझसे कहा था-''उतर जाओ गाड़ी से। और कभी मेरे घर की ओर रुख भी न करना। उफ मेरे भगवान। मुझसे यह क्या हुआ? मैं उसी को अपना मानने की भूल कर बैठी, जो मेरा सबसे बड़ा दुश्मन है। तुम्हें जासूसी करने के लिए और कोई घर नहीं मिला था। हमीं मिले थे।''

इससे पहले कि मैं कुछ बोलता या पूछता, मुझे वहीं छोड़ वह रात के सन्नाटे में फर्राटे भरती कार से निकल गयी थी। उस रात मैं गन्ना लदे एक ट्रैक्टर पर सवार हो अमृतसर लौटा था।

मैंने हरदीप को सोते से जगाया था और लगभग झिंझोड़ते हुए उससे पूछा था-''कत्याल का तुझसे क्या सम्बंध है? वह तुम्हारे नाम से इतनी चीढ़ क्यों गयी? मुझे जासूस क्यों कहा?''

-''सुबह बात करेंगे यार। अभी सो जाओ।'' और वह फिर सो गया था।

मैं रात भर जगा रहा और उसके सुबह जगने का इंतजार करता रहा। आखिर मुंह धोने के बाद चाय की चुस्कियां लेते हुए वह बोला था-''यार। हम तुम्हारा दिल नहीं तोड़ना चाहते थे। तुम बहुत मासूम हो। उसकी मां है ना महिंदर कत्याल। वह लेस्बियन है। इतना ही नहीं वह शहर में कई लड़कियों को गुमराह कर चुकी है।''

-''तुम्हें कैसे पता चला?'' मैंने लगभग बेवकूफ़ों सा सवाल पूछा था। यह भूल कर कि वह भी पत्रकार है और अमृतसर की तमाम खबरें रखता है, भीतर की भी और बाहर की भी।

-''पुलिस से। उसकी मां पर मामला भी हो गया था। वह तो मैं था कि मामले को रफ़ा-दफ़ा करवा दिया लेकिन कमबख़्त अहसान फ़रामोश है। अकेले ही मज़ा लेना चाहती है। हम यारों को मज़े नहीं लेने देना चाहती।''

-''प्लीज, विस्तार से समझाओ।''

-''विस्तार में कुछ और क्या जानना चाहते हो। अमृतसर से दो लड़कियां फरार हो गयी थीं। पता चला कि वे एक-दूसरे के साथ रहना चाहती हैं। उन्होंने ही यह बताया की उन्हें इसकी प्रेरणा तुम्हारी कत्याल की मां से मिली है। पुलिस ने इस मामले में उसे भी लपेटे में ले लिया होता, मगर मुझे इसकी भनक लग गयी थी। मैंने कत्याल का गाना एक कार्यक्रम में सुना था। अच्छी लगी थी। जब सुना की उसकी मां एक मामले में फंसने जा रही है तो एमपी को फोन मिलाया और मामले को रफा-दफा करवा दिया लेकिन मेरे एहसानों को वह नहीं मानती। एक दिन मैं मूड में था। उसके घर पहुंच गया। मैंने कहा था कि जो लेस्बियन क्लब चला रही हो चलाती रहो, लेकिन कभी-कभार हमारा भी ख़याल रखा करो, तो वह बिफर उठी थी। दरअसल बेटी संगीत सिखाने के नाम पर लड़कियों को अपने घर बुलाती है जहां उनकी मां उन्हें गुमराह करती है।

और अगली सुबह मैंने कोलकाता के लिए ट्रेन पकड़ ली थी। मैं अमृतसर से कुछ दिन दूर रहना चाहता था। जल्दबाजी मैं मैंने अख़बार नहीं देखे थे। अमृतसर से जब 'अकालतख्त' रवाना हुई तो सुबह के तमाम अख़बारों को जल्दी-जल्दी उलट गया। हर अख़बार महिंदर कत्याल की प्रशंसा और तस्वीरों से पटा पड़ा था। उन्होंने अमेरिका में महिलाओं पर चल रहे अंतरराष्ट्रीय सेमिनार में देश के बंटवारे से औरतों पर पड़ने वाले प्रभाव पर शोध-पत्र पढ़ा था, जिसे एक बड़े पब्लिशर ने पुस्तकाकार प्रकाशित किया था। इस पुस्तक पर उन्हें अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार की घोषणा की गयी थी। पंजाब के मुख्यमंत्री ने टेलीफोन पर उन्हें बधाई दी थी और उन्हें राज्य सरकार की ओर से भी सम्मानित करने का निर्णय लिया गया था। पंजाब मूल के विभिन्न देशों में विशिष्ट पदों पर आसीन लोगों और संस्थाओं ने उन पर गर्व किया था और अपने यहां स्वागत सत्कार के लिए उन्हें निमंत्रित किया था।

मुझे व्यास के किनारे कत्याल की वह बात याद हो आयी कि जब उसके दादाजी लाहौर से भागकर इस पार रावी के तट पर आये थे तो मल्लाहों ने अच्छी खासी रकम ही वसूल नहीं की थी बल्कि नाव पर बोझ अधिक होने के कारण लोगों से कहा था कि अपना अपना-सामान नाव से नीचे फेंक दो वरना सबकी जान जायेयी। जिन्होंने अपना सामान फेंकने में आनाकानी की थी उन्हें लोगों ने नाव से उठाकर दरिया में फेंक दिया था। मैं भी कत्याल व उसकी मां के बारे में अपने पूर्वाग्रहों से लदा रहा था और मैं जाहिर है कि अपने पूर्वाग्रहों के बोझ के कारण रावी में डुबो दिए जाने लायक ही था। जिस काम को मुझे करना चाहिए था वह कत्याल की मां ने कर दिया था। मैं बेहद शर्मसार था। मुझे लगा था कि मेरे लिए अमृतसर आना प्रोफेशनल तौर पर व्यर्थ साबित हुआ था क्योंकि मैं सीमा पर लिखने के लिए ही विशेष तौर पर यहां काम पर रखा गया था। ना ही अपने नाटक की पाण्डुलिपि पा सका और ना संतोषजनक ड्यूटी ही निभा सका। कोलकाता पहुंच कर मैंने अख़बार के संपादक को अपना इस्तीफा लिखने का मन बना लिया था, क्योंकि मेरी नज़र में जो काम मुझे करना चाहिए था वह महिंदर कत्याल ने कर दिखाया था। हालांकि मुझे इस तरह के शोधपरक काम के लिए नहीं कहा गया था मगर मैंने इस निजी पराजय के तौर पर ही लिया था।

मैंने अपने-आपको समझाने की बहुत कोशिश की थी कि पत्रकारिता के दौरान हमेशा यही महत्वपूर्ण नहीं होता कि वह क्या करने निकला है? वह एकाएक क्या हासिल कर लेता है वह भी माइने रखता है। मुझे इस बात पर संतोष करना चाहिए कि मैं अमृतसर के इतिहास में डूबने के बदले उसके वर्तमान स्वरूप को समझने में मशगूल हो गया था। धान की विपुल पैदावार के बाद किसानों की बदहाली अपने-आप में विस्मयकारी थी। अधिक पैदावार भी किसानों की खुदकशी का कारण बन रही थी। मैंने महसूस किया था कि वस्तु की मर्यादा उसकी मांग से है। आज के दौर में मांग और पूर्ति का सम्बंध सबसे अहम है। धान रिकार्ड पैदावार के बाद आलू की विपुल पैदावार ने किसानों की इस तरह तोड़ा कि वे आलू जानवरों को खिलाने पर विवश हो गये थे या फिर खेत में ही छोड़ दिया था लेकिन मेरी लाजिक ने मुझे दिलासा नहीं दिया। मुझे लगा कि मेरे अंदर किसी कामरेड का तर्क घुस रहा हो।

इस तरह की बातें मैं उन दिनों भी सोचने लगा था जब मैं पहले पहल कोलकाता पहुंचा था। और वहां के लेखकों- कलाकारों से मिलने के लिए 'खलासी टोला' पहुंचता था, एक देसी शराब खाना, जिसे कलाकार बड़े प्यार से 'केटी' कहते थे। सुना था कि वहां किसी ज़माने में फिल्मकार ॠतिक घटक से लेकर कवि शक्ति चट्टोपाध्याय तक पिया करते थे और अपनी रचना पर बहस भी करते थे। कोलकाता में मेरी मुलाकात जनवादी लेखकों से हुई थी जिनमें से कुछ तो डॉक्टर का हवाला देकर वहां विदेशी शराब की बोतल ले आते थे मगर पीते वहीं बैठकर थे। जहां टेबिलें बेहद गंदी, पेशाब की बदबू हुआ करती थी। और अक्सर लोगों के बीच तू-तू मैं-मैं हो जाया करती थी। कई कुछ असामाजिक तत्वों में एक दूसरे पर बोतलें भी चलने लगतीं और लेनिन और मार्क्स की चर्चा करने वाले टेबिलों के नीचे हमलों से बचने के लिए छिप जाते। कामरेडों की याद आने पर यह सोचकर मैं मन ही मन हंसा था कि यदि कोलकाता को कोई कामरेड पंजाब के धार्मिक मेलों को देखे तो दंग रह जाये कि किस तरह यहां के धार्मिक मेलों में राजनीतिक पार्टियां अपना स्टेज बनाती हैं और अपने राजनीतिक मुद्दों को श्रद्धालुओं के सामने रखती हैं। यहां राजनीति और धर्म साथ-साथ थे। मीरी और पीरी का सिद्धांत था, जबकि कोलकाता में राजनीति और धर्म का सम्बंध पतित सम्बंध था। मैंने अख़बार से इस्तीफा दिया तो सम्पादक ने बेहद अपमानजनक टिप्पणी के साथ स्वीकार कर लिया। सम्पादक का कहना था ''तुम कोलकाता वालों में यही कमी है, वे हमेशा अपने आपको सामान्य से कुछ ऊपर का आदमी समझते हैं। अरे भई! हर कलकतिया को नोबेल नहीं मिलने जा रहा है। और फिर मिला करे नोबेल। अख़बार को दो नम्बर की मेधा की ज़रूरत होती है। यहां सोने की कुदालों की ज़रूरत नहीं। हमें तो सामान्य काम करना है जो तुम जैसे बौद्धिक व्यक्ति को हेय नज़र आता है।''

No comments: