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Monday, November 15, 2010

खण्ड : तीन

ज़िस्म भी हथियार है

बातों-बातों में मैं उस रीता की चर्चा भूल सा ही गया, जिसके बारे में मुझे आपको सबसे पहले बताना चाहिए था। वह मुझे पहली मुलाक़ात के साथ ही आकर्षित कर गयी थी। एक वज़ह यह भी थी कि वह मेरे नाटक का मुख्य किरदार थी। नाटक के बाद मारपीट की वज़ह भी वही बनी थी। निर्देशक ने उसे नाटक के फ़्लाप होने का दोषी ही नहीं माना था, बल्क़ि एक करारा थप्पड़ उसे जड़ा था। रीतू से जब मैं मिला था, उस वक्त वह रीता लालवाणी थी। बाद में उसे लगा कि यह नाम ग्लैमर की दुनिया से मेल नहीं खा रहा जिसके कारण वह अपना प्रभाव नहीं बना पा रही है तो वह रीतू हो गयी। बाद में एफिडेबिट देकर वह रीता तायवाला हो गयी। यह सरनेम उसने इस इरादे से लगाया था कि नाम के प्रति लोग आकर्षित हों। लोगों को यह भी भ्रम होता था कि वह पारसी आदि है।

उसने अपने नाम ही नहीं बल्कि अपने बारे में कोई भी भ्रम टूटने नहीं दिया। उसका सूत्र वाक्य था-'सफलता पाने के लिए किसी के व्यक्तित्व में धुंध अनिवार्य है।'

उसका ख़याल था कि भ्रम के कारण व्यक्ति का सही मूल्यांकन संभव नहीं है और ऐसे में कोई चाहे तो अपने बारे में कुछ भ्रम पैदा करके उस मुकाम तक भी पहुंच सकता है, जिसका कि वह हक़दार भी नहीं होता। अपने बारे में किसी दूसरे को सही-सही जानकारी नहीं देनी चाहिए यह वह मानती थी और यही कारण था कि वह मेरे लिए भी एक अबूझ पहेली बनी रही। उसने एक ऐसे क्षेत्र में कदम रखा था जहां फिसलन ही फिसलन थी। जहां रास्ते तय नहीं थे। संभावनाएं तय नहीं थीं और मंज़िल भी अजानी थी। हर दिन एक नयी आशा के साथ शुरू होता था और हताशा के साथ ख़त्म। वह दिन के गुज़र जाने से बेहद डरती थी। वह मानती थी ग्लैमर की दुनिया में औरत का हुस्न ही उसका अस्त्र है। हर दिन उसे ढलान की तरफ़ ले जा रहा है। वह कम समय में वह सब कुछ पा लेना चाहती थी, जो उसे चाहिए था क्योंकि देर हुई तो उसे कुछ भी हासिल नहीं होना है।

उसने वह सब सीखा जो उसकी सपनों की दुनिया के लिए ज़रूरी लगा था। सोलह साल की उम्र में वह अपनी मां के साथ कोलकाता के फिल्म स्टूडियो के चक्कर लगाने लगी थी। कभी इंदुपुरी, कभी मूवीटोन, कभी टेनीशियन नम्बर एक दो कभी टेनीशियन नंबर दो, कभी अरोड़ा। जहां फ़िल्में तो कम बन रही थीं लेकिन टीवी के विभिन्न चैनलों को लिए लगभग हर डायरेक्टर धारावाहिक बनाने में लगा हुआ था। हालांकि, उसका सपना फ़िल्मों में हिरोइन बनने का था। यह ख्वाइश उसमें जगा दी गयी थी। जिसके चलते वह छल का शिकार हो गयी थी और सामान्य जीवन जीने लायक नहीं रह गयी थी। उसने तय कर लिया था कि यदि वह वापस लौटती है तो उसके हिस्से केवल हताशा ही आयेगी। केवल खोने का एहसास आयेगा। अब उसी दिशा में चलकर पाना ही उसकी मंज़िल है। वह अपने खोये को उपलब्धियों से ढक लेना चाहती थी। बड़े सरकारी अफसर की बेटी रीतू ने अभी दसवीं की परीक्षा पास की थी। उसकी लम्बी काया और सुडौल देहयष्टि पर खुद उसकी मां को गुमान था। इधर एश्वर्या राय, सुष्मिता सेन, विपाशा बसु जैसों की चर्चा थी। उसकी मां ने भी यह सपना देखा कि उसकी बेटी भी ग्लैमर की दुनिया में अपना नाम रोशन करे, जबकि उसके पति सरकारी दौरों पर रहते वह उसे अपने साथ कोलकाता में आयोजित होने वाले फैशन शो में ले जाने लगी थी। तेज़ रोशनी में नहाई सुंदरियां जिस बेफ़िक्री से अपने ज़िस्म की नुमाइश करतीं थीं और इठला-इठला कर अपनी अदाओं का प्रदर्शन करतीं वह उसे भी अपनी ओर आकर्षित करने लगा था। उसे यक़ायक पता चला था कि ज़िस्म छिपाने नहीं दिखाने की चीज़ है। वह बंद कमरे में दिखाया जाये तो उसकी कोई क़ीमत नहीं। वह जितने ही अधिक लोगों की नज़रों से गुज़रे वह उतना ही आकर्षक हो उठता है। उसने भी सपना देखा कि लाखों निगाहें उस पर एक साथ जमीं हैं और उसकी हर अदा कैमरों में क़ैद की जा रही है। यह जो ढलने वाला ज़िस्म है, कैमरे में क़ैद हो जाने के बाद वह अमर हो जायेगा। वह बाथरूम में लगे बड़े आईने में अपने को देखती और तमाम मॉडलों से अपनी तुलना करती। उसके घर में टीवी का फैशन चैनल लगातार चलता रहता था। अब वह हर किसी से बहुत संभल कर बात करती जैसे कि उसकी हर हरकत लाखों लोगों की निगाह से गुज़र रही है। उसके चारों ओर कैमरे लगे हुए हों। उसने उच्चारण पर विशेष ध्यान देने लगी थी। पढ़ाई नहीं बल्कि अपने भावी इंटरव्यूज की तैयारी के लिहाज़ से उसने अपनी अंग्रेज़ी सुधारने के लिए ट्यूशन पढ़ना शुरू कर दिया था। हालांकि उसकी हिन्दी अच्छी थी लेकिन हिन्दी के लिए भी एक प्राध्यापक से अपने उच्चारण को शुद्ध करने में मदद ली। उसे पता था कि उसे कभी न कभी हिन्दी फिल्मों में जाना है उसकी तैयारी ज़रूरी है।

उसकी मां ने कोरियोग्राफर से मिलाया था। वह असर उसके कथित ट्रेनिंग सेंटर में जाने लगी थी जहां वह उसे चलने, बात करते समय हाथ कहां पर हों से लेकर होठ कैसे हिलें तक के प्रति सचेत किया था। अभ्यास करवाया था। वह पहला मर्द था जिसके सामने वह पहली बार अपने अधोवस्त्रों में आयी थी। और उस दिन उसे अपने ज़िस्म को लेकर उतनी शर्म नहीं आयी थी जितनी इस बात पर आयी थी कि उसके अधोवस्त्र सुरुचिपूर्ण नहीं थे और सस्ते थे।

उस दिन के बाद खुद उसकी मां ने उसके भीतरी कपड़ों की ख़रीदारी पर विशेष ध्यान दिया था। उसे जानकार हैरत होती थी कि इतने कम कपड़े के टुकड़ों की इतनी ऊंची क़ीमत है। शायद यह औरत को हीनता ग्रंथि से उबारने की क़ीमत थी, जो बाजा़र वसूल कर रहा था। उसे इसका आदी होना था। आख़िर वह भी इसी बाज़ार का हिस्सा होने जा रही है। उसकी एक-एक झलक की क़ीमत लाखों में होगी। हां, किसी दिन वह उन्हीं कपड़ों के लिए मॉडलिंग भी कर सकती है। कर सकती नहीं है बल्कि उसे करना है, उसने मन में ठाना था।

फिर कई बार वह देर तक उन्हीं कपड़ों में खो जाती। आईने के सामने ऐसे हाव-भाव दिखाती जैसे वह फोटोग्राफ़रों को पोज़ दे रही हो। अपनी प्रोफाइल के लिए जब वह तस्वीरें खिंचवाने के लिए भी उसने कई नामचीन फोटोग्राफ़रों के चक्कर लगाये। हर तस्वीर के बाद उसे लगता की बात बनी नहीं। वह और बेहतर की तलाश में काफी भटकी। फोटोग्राफ़रों ने उससे कम मशक्कत नहीं करवाई।

वे उसे कोलकाता की तमाम लोकेशंस तक ले गये। उन्होंने अपनी मनचाही भंगिमाओं में उसे क़ैद किया। कई बार तो एक पोज़ के लिए घंटों का समय लगा। कोई उसके चेहरे को नेचुरल बनाना चाहता तो कोई 'सेक्सी''सेक्सी' शब्द यहां महत्वपूर्ण शब्द था, जो प्रशंसा के अर्थों में था। यह एक्सप्रेशन देना उसके लिए आसान नहीं था। यह भंगिमाएं उन दिनों उसकी समझ के परें थीं। फोटोग्राफ़र उससे कहते उसका चेहरा सपाट है। कोई भाव चेहरे पर मुश्क़िल से आता है। जो कुछ फोटो में दिखाई देता था वे उसे अपना कमाल बताते।

इन फोटो-सेशन्स में कई बार उसकी मां उपस्थित रहती थी, मगर उसका होना न होना बराबर था। फोटोग्राफ़र उसे बराबर परेशान करते और यह कहना नहीं भूलते कि उसके साथ काम करना मुश्किल है। अपनी बातचीत में वे देश के नामचीन मॉडलों व फिल्मी हस्तियों का नाम लेते जिनकी तस्वीरें उन्होंने खींची थी। कई को तो मॉडल बनाने का श्रेय वे ख़ुद लेते। प्रमाण के तौर पर उनके पास तमाम मॉडलों की तस्वीरें होतीं थीं जिसको देख उनके दावे को चुनौती नहीं दी जा सकती थी और ना ही उन्हें मामूली समझ कर उनके साथ लापरवाही का बर्ताव ही किया जा सकता था।

उसकी मां ने हमेशा दिमाग ठंडा रखने का गुर उसे दिया था और बताया था कि यही कुंजी है इस क्षेत्र में सफल होने की। चिंता व क्रोध सौंदर्य के सबसे बड़े शत्रु हैं। चिंतित और क्रोधित व्यक्ति दूसरे का कम और अपना नुकसान अधिक करते हैं। जिस हद तक वह उनके नखरे उठाने को अपनी आदत में शुमार करती चली गयी उसी हद तक उनकी बदतमीज़ियों में इज़ाफा भी होता चला गया था। वे उसके घर से कोई भी चीज़ उठा ले जाते उसकी आंखों के सामने और वह उन्हें मना नहीं कर पाती।

उसका बिस्तर गंदा कर देते। सिगरेट की राख इधर-उधर झाड़ देते। कभी-कभार तो तुम और तू की भी भाषा इस्तेमाल करने लगे थे। उन्हें धीरे-धीरे यक़ीन होने लगा था कि इस पर ग्लैमर का जादू सिर चढ़कर बोलने लगा है। यह इसके मायाजाल से नहीं निकल पायेगी। उनका साबका ऐसी लड़कियों से अक्सर पड़ता था इसलिए वे भी फूंक-फूंक कर क़दम रखते थे। शुरू में ही वे कोई ऐसी हरकत नहीं करते जिससे कि कोई नया व्यक्ति भड़क कर भाग खड़ा हो। इस बात का पता उसे चल चुका था लेकिन उसके पास कोई विकल्प नहीं था कि वह उनके खिलाफ़ कुछ करे। उसने जान लिया था कि वह कुछ नहीं है। वह, वह है जो दिखाई दे सकती है। इस दिखाई देने में फोटोग्राफ़रों का बड़ा हाथ होता है। इतना ही नहीं उसे बाद में मॉडलिंग के बड़े आफ़र दिलवाने में उनकी भूमिका को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता था। फिर पत्र- पत्रिकाएं में इंटरव्यू और तस्वीरें न छपें तो आगे बढ़ने का रास्ता कैसे मिलेगा? वे फोटोग्राफर ही थे जो उनके प्रचार का जिम्मा उठाते थे। जब भी वे आते दो-चार-पांच सौ रुपये लिए बिना खिसकते नहीं थे। उन्हें पचासों फ़ोन नम्बर याद रहते थे। वे घर में हमेशा फ़ोन के पास ही बैठते और विभिन्न नम्बरों पर बातें कर उसके फ़ोन का बिल इतमीनान से बढ़ते रहते और अपनी बातें सुनाकर उसे इम्प्रेस भी करते रहते।

रीतू को इन फोटोग्राफ़रों ने यह एहसास दिला दिया था कि वह कुछ नहीं है। उसे कुछ बनना है। इस बनने में वे सहायक हो सकते हैं। और वह भद्दी शक्ल वाला गांगुली सहायक साबित भी हुआ। वह उसके बारे में विभिन्न मसलों पर उसके विचार ले गया और एक बांग्ला फ़ैशन पत्रिका में उसकी रंगीन तस्वीर व इंटरव्यू छपी थी। उसके घर लोगों के बधाइयों के फ़ोन आने लगे तो उसे लगा कि वह अब मंज़िल की तरफ बढ़ रही है। वह एक दिन क़ामयाब हो जायेगी। अपनी मां के साथ उसने स्टूडियो जाना शुरू कर दिया था। हालांकि अभिनय के नाम पर उसने केवल एक स्कूली नाटक में छोटा सा रोल किया था। बाद में थोड़ा बहुत अभिनय सीखने के बारे में सोचा था लेकिन अभिनय के बारे में गंभीर बातें सुनकर वह घबरा गयी थी। उसे लगा था कि इतना सब कुछ सीखते-सीखते वह बूढ़ी हो जायेगी। उस समय उसे कोई मां या दादी की भूमिकाएं ही देगा। हिरोइन वह बनने से रही, जो कि वह बनना चाहती है। मॉडलिंग के बारे में तो वह इसलिए सोच रही थी क्योंकि यह फ़िल्मों में प्रवेश करने का आसान नुस्खा था। उसके सामने कई अभिनेत्रियों के उदाहरण थे जो मॉडलिंग की दुनिया से आयी थीं।

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