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Monday, November 15, 2010

खण्ड : चार

कला के बाजार में अंजू

अंजू में कला से जुड़ने के बाद कुछेक महत्वपूर्ण तब्दीलियां आयी थीं जिस पर मैंने पहले गौर नहीं किया था। एक तो यही कि उसने अपने निर्णय ख़ुद लेने शुरू किये थे। इसमें आपको या दिलचस्पी हो सकती है। सो उस तब्दीली की बात करना चाहूंगा जो नजरंदाज़ नहीं की जा सकती। वह मुबारक़ की शिष्या बनने के बाद से लगातार मुबारक़ के परिवारवालों के भी क़रीब होती चली गयी थी। वह मेरी उपस्थिति में भी मुबारक़ के घर असर जाती रहती थी। मेरी गैर मौज़ूदगी में तो वह दो-चार छह दिन उन्हीं के यहां रह जाया करती। मुबारक़ की मां, उनकी पत्नी और बेटियां सब उसे अपने घर की ही सदस्य समझते। उनके अड़ोस-पड़ोस के लोग भी उन्हीं के घर का सदस्य समझ कर व्यवहार करते। त्योहारों, शादी-ब्यौह के मौक़े पर उसे याद करते। वह पहुंचती भी थी।

मुबारक़ का ज़्यादातर संपर्क स्वाभाविक रूप से मुसलिम परिवारों से ही था। अंजू के व्यवहार में उस माहौल की छाप जाने-अनजाने पड़ने लगी थी। वह पहले तो इफ़्तार पार्टियों में शिरकत करती थी फिर ख़ुद रोज़े रखने लगी थी। अपने घर में भी जब रहती अजान की आवाज सुनकर माथे पर कपड़ा रख लेती। वह मज़ारों पर जाने लगी थी। मस्ज़िद के निर्माण के लिए चंदा देने वालों में भी वह पीछे नहीं थी। कभी खिचड़ा बनता और यतीम खाते। वह कहती इससे बरकत होती है। मगर वह बरकत की ख्वाइश एक जिस तौर-तरीके से रखती वह उस पर मुबारक़ की सोच की स्पष्ट छाप रहती। जानवर के मुंह के आकार वाले सोने के कंगन का डिज़ाइन उसने बदलवा दिया था। हम शाकाहारी नहीं थे। वह अब नौकरानी के बदले ख़ुद दुकान से गोश्त ख़रीदने जाती और मुसलमान कसाई के यहां से ही गोश्त लेती। वह हलाल का ही है न पूछना नहीं भूलती। यहां तक की मुर्गा आदि ख़रीदने के बाद उसे हलाल करवा कर ही लाती। इन्हीं वज़हों से वह हिन्दू मित्रों के यहां वह गोश्त की दावतों से बचने लगी थी। घर में अब बिरयानी आदि भी बनने लगी थी। यहां तक की वह दस्तरखान आदि का भी इस्तेमाल करने लगी थी। दस्तरखान पर गिरी हुई जूठन खा जाती। कहती दस्तरखान की जूठन खाने से कोढ़ की बीमारी नहीं होती। बातों ही बातों में उसने बताया था कि लघुशंका के बाद वह पानी लेती है। मुझे भी सलाह देती। इससे सफाई रहती है। बुरा या है? हमारे घर में जांनमाज थी, जिस पर बैठ कर मुबारक़ नमाज पढ़ते थे। वह मानती थी हमारे घर में यदि नमाज पढ़ी जाती है तो उसका पुण्य हमें मिलेगा। घर की नौकरानी भी मुसलमान रख ली गयी थी। बाबरी मसज़िद प्रकरण पर उसका रवैया हिन्दुओं के विरोध में था। वह उस घटना को इतिहास का कलंक ही मानती थी। उसकी नज़र में अब हिन्दू गंदे थे। वे लघुशंका के पानी नहीं लेते। इसी कारण वह उनके बिस्तरों पर बैठने से उसे भी हिचक होती थी। मेरे घर में पूजा-पाठ का कोई माहौल नहीं था। ना ही किसी कर्मकाण्ड पर मैंने कभी ज़ोर ही दिया था लेकिन एक भिन्न प्रकार के कर्मकाण्ड मेरे घर में शुरू हो चुका था। वह दुर्गापूजा, कालीपूजा के सार्वजनिक पंडालों में बज रहे फिल्मी गीतों की आलोचना करती। उन्हें अधर्मी और हिन्दू देवी-देवताओं का मज़ाक उड़ाने वाला बताती। किसी के यहां सत्यनारायण की कथा आदि में जाती तो पंडित की लालची प्रवृत्ति की निंदा करती। देवी-देवाताओं के चित्रों के अख़बारों आदि में प्रकाशित होने पर उसे ठेस लगती। कहती -''इसी का बाद में ठोंगा बन जायेगा। कोई इस में पान बांधेगा तो संभव है कोई अख़बार से बच्चे की गंदगी साफ़ करे। हिन्दुओं की आस्था नकली है। उनमें संस्कारों का अभाव है। फिल्मों में गीता की कसम खाकर भी चरित्र झूठ बोलते दिखाई देते हैं। देवी-देवताओं के बारे में तमाम पतित कथाएं हमारे धर्मग्रंथों में हैं।''

वगैरह... वगैरह। वह तर्क देती और कहती-''इसलाम में औरतों को ज़्यादा आज़ादी है। हिन्दू औरतों का शोषण करते हैं।

हिन्दू अपने ईमान के खरेपन पर ज़ोर नहीं देते। मुसलमान मुसल्लसल ईमान वाले होते हैं। वह इस्लाम की निंदा नहीं सुन सकती थी। उसने उर्दू पढ़ना-लिखना सीख लिया था। वह कहती-''मैं इसलाम की आभारी हूं। मुझे मुसलमानों ने बहुत कुछ दिया है। मैं उनका आदर करना चाहती हूं। मेरे इस काम में बाधक न बनें। किसी के प्रति श्रद्धा रखना आख़िरकार ग़ुनाह तो नहीं है न।''

हमारे यहां कई बार अज़ीबो-ग़रीब से लगते फ़कीर-औलिया आने लगे थे। वे उसे आशीर्वाद देते। वह उनके प्रति सम्मान व्यक्त करती। ख़ातिर करती। मुझे तब अच्छा लगा जब पता चला कि वह महाकुंभ में शामिल होने प्रयाग जा रही है। हैरत भी थी कि मुबारक़ भी साथ गये थे। शायद परस्पर श्रद्धा का मामला है। मैंने सोचा था। अंजू प्रयाग से लौटी तो एक क़ीमती कैमरे के साथ, जो उसने जाने से कोलकाता से ही ख़रीदा था। उसने कुंभ स्नान की कई तस्वीरें खींची थी।

फिर समझ में आया कि यह यात्रा धार्मिक नहीं प्रोफेशनल थी। खींची हुई सैकड़ों तस्वीरों में से उसने कुछ को चुना था। उसके अध्ययन के बाद कैनवास पर चित्रित करना शुरू किया था। उसने सिरीज का नाम दिया था-'महाकुंभ।'

'महाकुंभ' बनकर तैयार हो गया था। इसमें अंजू को काफी समय लगा। 'महाकुंभ' सिर्फ वही कुंभ नहीं था जो प्रयाग में था। उसने कुंभ के नाम पर जो रचा था वह पश्चिमी दुनिया को अपनी ओर आकर्षित करने वाला नज़ारा पेश करता था। उसमें नागा साधु थे। नंग-धड़ंग। शरीर से हृष्ट-पुष्ट। उनकी आंखों में एक अज़ीब सी मस्ती थी। शरीर पर भभूत लपेटे विदेशी महिला पर्यटक भी थी, निर्वस्त्र। पानी में स्नान करती औरतों थीं, जिनके अनावृत शरीर पर ही फोकस किया गया था। उसने महाकुंभ को जिस रूप में दर्शाया था वह पश्चिमी दुनिया के लिए एक दिलचस्प उन्मुक्तता थी। जिसमें देह की प्रधानता थी। जल में भी देह का प्रतिबिम्ब था।

पते की बात यह थी कि न सिर्फ़ पश्चिम में बल्कि भारत में भी इस बात की चर्चा नहीं की गयी कि यह बाज़ार को ध्यान में रखकर बनायी गयी कलाकृतियां हैं। बाज़ार की मांग पर। कला-आलोचकों ने इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। कृतियों को अच्छी क़ीमत मिल रही थी। खुद 'महाकुंभ सीरीज' की पेंटिंग के बारे में जो ब्रोश्योर अंजू ने तैयार किया था वह उन कृतियों की सही व्याख्या नहीं कर रहा था, बल्कि वह कृतियों के बारे में एक भ्रम रच रहा था। वह भी नागा साधुओं की जीवन शैली की तरह ही एक रहस्यवाद की रचना कर रहा था। उसकी नीयत को स्पष्ट नहीं कर रहा था। उसमें आत्मा की बातें थीं। मोक्ष की बातें थीं।

हालांकि अंजू मोक्ष के नाम पर वह देह बेच रही थी। लोग मोक्ष के नाम पर देह ख़रीद रहे थे। देह के बहाने लोग मोक्ष की चर्चा कर रहे थे। अद्भुत तिलस्म था। जो था वह चर्चा में नहीं था। जो चर्चा में था वह कला में नदारत। एक कोलाज़ था। घोड़े पर सवार नागाओं का। मस्ती में नाचते नागाओं का। गले में रुद्राक्ष की मालाएं थीं और फूलों की मालाएं।

यहां शून्य से कम तापमान में कंपकंपाते लोग नहीं थे, जो आत्मा के मोक्ष के लिए पहुंचे थे। अपने पापों से मुक्ति की कामना नहीं थी। शाश्वत और क्षणभंगुरता नहीं दिखी। किसी भी एक्सप्रेशन में नहीं। यह सब केवल शब्दों में था, कलाकार के भी और आलोचकों के भी।

ब्रोश्योर में एक अंजू ने महाकुंभ का परिचय दिया था। हर बारह साल के अंतराल में होने वाला यह महाकुंभ सैकड़ों वर्षों से बरकार था। दुनियां का सबसे बड़ा मेला। सैकड़ों साल पहले राजा हर्षवर्धन कुंभ मेले में पहुंचते थे। अपना सर्वस्व दान करने के बाद वे एक नया जीवन शुरू करते थे। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी इसकी चर्चा की थी।

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