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Monday, November 15, 2010

दर्द हमारा और हम दोनों

मैं अंजू के काम-काज में हस्तक्षेप इसलिए भी नहीं कर सका क्योंकि मुझे अक्सर लगता था कि वह व्यवहारिक है। मेरी दुनिया ख़याली थी। मैं हक़ीक़त को ख़्वाब और ख़्वाब को हक़ीक़त की तरह देखता था लेकिन वह ख़्वाबों को हक़ीक़त में तब्दल करती थी। अपने जीवन के साथ उसने यही किया था। वह सीधी-सादी सरल युवती, क्या कुछ कर गुज़रेगी यह मैंने नहीं सोचा था।

कभी-कभार वह बताती की पेंटिंग्स में वह कई बार वह प्रयोग करती थी जो वह स्पप्न में देखती थी। आपको बता दूं कि इधर वह कुछ दिनों से मुझसे खुली थी। मुझसे वह बातें भी करने लगी थी जो पहले नहीं करती थी। हम कभी-कभार साथ घूमने भी जाने लगे थे।

सच कहूं कि उसके साथ बैरकपुर गांधीघाट पर गुजारी गयी शाम मुझे याद है। जहां पहली बार वह अपने मन की व्यथा मुझसे बेलाग तौर पर कह पायी थी। उसने मुबारक़ के बारे में कुछ बातें बतायी थी जिससे मुबारक़ के प्रति मेरे नज़रिये में उल्लेखनीय बदलाव आया और मैं उसके प्रति श्रद्धा का भाव रखने लगा था। अंजू ने बताया कि वह बक़रीद के दिन मुबारक़ ने उसे शाम को अपने घर आने के लिए कहा था। अंजू को पता था कि उनके घर दावत है तमाम लोग आयेंगे। मुबारक़ की बीवी की मदद करने के ख़याल से वह अपने मन से ही सुबह उसके घर पहुंच गयी। यह देख कर वह उल्टियां करने लगी थी कि मोहल्ले में कुछ लोगों ने प्रशासन को धता बताते हुए गाय की बलि दे दी थी। एक बार तो उसके मन में आया कि वह लौट जाये मगर उसके मन में चोर जागा की या पता मुबारक़ के यहां भी...।

वह हक़ीक़त को अपनी निग़ाहों से देखना चाहती थी। ऐसा हुआ तो वह मुबारक़ को कभी माफ़ नहीं करेगी और ना ही उससे कोई ताल्लुक रखेगी। उसे देख मुबारक़ के घर के लोग हक्का- बक्का रह गये थे। मुबारक़ ने कातर स्वर में कहा था- ''तुम्हें मना किया था ना अंजू। शाम को आना चाहिए था। बेकार तुम्हारा मन खराब हुआ।''

पड़ोसी की एक महिला उस समय उनके घर में थी। उसने तपाक से कहा था-''कौन दूध के धुले बनते हो। अंजू से याराना क्या हो गया अपना तौर-तरीक़ा ही भूल गये। काफिर हो गये हो। वह दिन हमें भी याद है जब एक नहीं तीन-तीन बड़ी जानवर तुम्हारे दरवाज़े पर ही कटी थी।

मुबारक ने सफाई दी थी-''अंजू हमारे परिवार की दोस्त हैं। क्या हम इनकी भावनाओं का ख़याल नहीं रख सकते। हमें ईमान भी प्यारा है और दोस्त भी।''

ऐसी ही एक शाम और गुज़री थी। यह शाम मेरी ज़िन्दगी की सबसे बेचैन करने वाली शाम थी। अंजू उस दिन पहली बार मेरे कंधे पर सिर रखकर देर तक रोती रही थी। मैंने बातों-ही-बातों में कहा था -''बुरा न मानना। मैं तो लगभग नास्तिक ही हूं लेकिन तुममें चाहे जिसके प्रति आस्था हो, आस्था तो बची है। फिर तुमने मोक्ष कैसे बेच दिया। मेरा इशारा उसके 'महाकुंभ सीरीज़' पेंटिग्स की तरफ था।

वह फूट पड़ी थी-''मैं एक बांझ हूं और बांझ को मोक्ष कैसा। मैं भी डॉक्टर को दिखाया है और तुमने भी। हममें कोई कमी नहीं है फिर भी मैं मां नहीं बन सकी। कितने ही फ़कीरों को दिखाया। कितने मंदिरों में मन्नत मांगी। कितने ही दरगाहों पर माथा टेका।''

मैंने सांत्वना दी थी-''तुम कलाकार हो। तुम्हारी कृतियां ही तुम्हारी औलाद है। उन्हीं से तुम्हारा नाम होगा। और मोक्ष भी उसे से मिलेगा।''

-''नहीं। मैं कला की दुनिया में भी बांझ हूं।'' वह अपनी रौ में बोले जा रही थी-''मैंने उर्दू सीखा है। मैं क़ुरान पढ़ती हूं। मैं मुहम्मद साहब की ज़िन्दगी के तमाम वाक़यों को पढ़ा है। मुझे तमाम हदीसें याद हैं। तुम्हें यक़ीन न होगा। मुहम्मद साहब कि ज़िन्दगी के बारे में जो पढ़ा है उसके कई दृश्य मेरी आंखों के सामने दिखाई से देते हैं। मैं एक चित्रकार हूं। मन में इच्छा होती है कि मैं मुहम्मद साहब के जीवन के प्रसंगों पर पेंटिंग्स की सीरीज बनाऊं, मगर मैं नहीं बना सकती। यह मना है। सख़्त मना है। यह ख़याल भी गुनाह है। इसलिए मैं कला की दुनिया में भी बांझ रहने के लिए विवश हूं।''

उसी शाम उसने यह भी बताया उसने कि मेरे नाटक की खोई हुई पाण्डुलिपि अरसे से उसके पास थी। जिस दिन उसने संखे पोले की चूड़ियां मेरे सूटकेस में देखा था, उसी दिन उसे फाड़कर फेंक दिया था। वह जान गयी थी कि दरअसल मुझे पाण्डुलिपि नहीं कुछ और चाहिए जिसे मैं खोज रहा हूं। वह मेरी उस खोज को मरने नहीं देना चाहती थी। खोज का मर

जाना भी बांझ होना ही तो है...

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