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Sunday, January 3, 2010

आज की हक़ीक़त की पड़ताल


पुस्तक समीक्षा
--लोकेन्द्र बहुगुणा
आत्मकथात्मक शैली में प्रस्तुत अभिज्ञात का उपन्यास 'कला बाज़ार' वैश्वीकरण के दौर में तेज होते जा रहे व्यत्तिगत महत्वाकांक्षाओं और सामाजिक मूल्यों के टकराव का दस्तावेज है। इस टकराव ने न केवल समाज के परिवर्तन का रुख बदला है वरन बदलाव की इस प्रक्रिया को और तेज भी किया है। उपन्यास के पात्र बदलाव के इस दौर में अपने वजूद की अपने अपने ढंग से लड़ाई लड़ रहे हैं। समाज में 'हैसियत' पाने की दौड़ में चाहे अनचाहे उन्हें उन सामाजिक मूल्यों से टकराव का अंर्तद्वंद्व झेलना पड़ता है जो उन्हें पिछली पीढ़ी से विरासत में मिले हैं।
कला बाज़ार के पात्र ग्लैमर की दुनिया के विभिन्न फलकों साहित्य. कला, देहसज्जा (अर्थात मॉडलिंग) में खुद की मंजिल पाने को बेकरार हैं जिसके लिए कभी चाहे और कभी अनचाहे वे उन सारी बातों से समझौता करते दिखाई पड़ रहे हैं जिन्हें वे खुद भी टैबू मानते रहे हैं। वे समाज में अपनी जगह बनाने की लड़ाई अपने-अपने ढंग से लड़ रहे हैं। मंजिल पाने के लिए हालात से समझौता करने को वे सच भी मान बैठते हैं। हर पात्र हमारे इर्दगिर्द मौजूद लगता है। ऐसे घटनाक्रम जिनसे हम आये दिन दो चार होते रहते हैं। इस बात को स्वीकार करते हुए कि रुतवा, शोहरत और ऐशोआराम पाने की ललक को हकीकत में बदलने की कोशिश के दौरान समाज और उसके मूल्यों की उजली तस्वीर के स्याह पक्ष को उजागर करने की कोशिशें पहले भी हुई हैं, अब भी जारी हैं और आगे भी जारी रहेगी, नये समय को परिभाषित करने की लेखक की कोशिश, उसे बयान करने का अंदाज दिलचस्प है। एक नाटक की पाण्डुलिपि की खोज की इस दास्तान में अभिज्ञात की किस्सागोई पाठक को शुरू से लेकर अंत तक बांधे रखती है। चार खण्डों के इस उपन्यास की शुरुआत नायक द्वारा एक पाण्डुलिपि की खोज से शुरू होती है और नायक की पत्नी द्वारा यह बता दिये जाने के साथ समाप्त होती है कि उसने नायक की रचनाशीलता को बचाये रखने के लिए पाण्डुलिपि को काफी पहले नष्ट कर दिया था, के साथ समाप्त होती है। खोज के दौरान नायक के स्मृति पटल पर उन लोगों की याद ताजा हो जाती है जो उसके इस नाटक से किसी न किसी रूप में जुड़े रहे हैं।
'कला बाज़ार' इसलिए भी दिलचस्प है कि यह न केवल पिछले छह - सात दशकों की हकीकत बयान करता है वरन यह आज की हकीकत भी है जहां रत्ना-मोरा, हरदीप, कत्याल, मुबारक, रीतू, हनू दा, अंजू का द्वंद्व हमारा अपना द्वंद्व दिखाई देने लगता है। फिर भी जिंदगी की उलझनों का विश्लेषण करते-करते लेखक कहीं-कहीं खुद भी उलझे हुए लगते हैं मसलन कत्याल के साथ व्यास के तट का वाकया और अमृतसर वापसी के दौरान बातों बातों में उसका यह जान लेने के बाद कि नायक हरदीप के साथ रहता है नायक को बीच रास्ते में गाड़ी से उतार देने या मोरा की जिंदगी की उठापटक और रीतू की ग्लैमर की रानी बनने की कोशिशों के प्रसंग इतनी तेजी से घटते हैं कि वे नाटकीय लगने लगते हैं फिर भी उपन्यास पाठक को बांधे रखता है और यही अभिज्ञात की सफलता है।

पताः 3ए, बंधन अपार्टमेंट, बीएफ 1/11 प्रतिबेशी पाड़ा, देशबंधु नगर
कोलकाता-700059

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