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Friday, January 22, 2010

परत- दर- परत मूल्यों की तलाश

-उमेश कुमार राय
साभारः द पब्लिक एजेंडा
उपन्यास 'कला बाज़ार' में एक ओर जहां नारियों के कई रूपों का दिखाया गया है वहीं दूसरी ओर विभिन्न धर्मों के बीच परस्पर सम्मान की भावना पर जो दिया गया है। यही नहीं उपन्यास में अप्राकृतिक रिश्तों की वैधता की मांग पर उतरे लोगों की मानसिकता और इसके पीछे की स्वाभाविक वजहों की भी पड़ताल की गयी है।
बहुत पुरानी धारणा है कि नारी ही नारी के कष्टों का कारण बनती है परन्तु इस उपन्यास में इसकी छाया तक नज़र नहीं आती। उपन्यास में रिश्तों में खुलापन और इसकी वजह से आनेवाली विकृति पर भी कुछ पन्ने हैं।
उपन्यास में मोरा और रत्ना के बीच सम्बंधों में आया खुलापन संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है। इसका एहसास तब हो जाता है जब लेखक के हवाले से मोरा प्रसंग पर खुशी जाहिर करते हुए कहती है कि उसकी मां की मृत्यु हो चुकी है और अब उसके रत्ना के प्रेमी (यानी मोरा का भी प्रेमी) के बीच 'तीसरा' कोई नहीं।
मोरा और उसकी मां के प्रेमी के बीच के सम्बंध को यहां इस प्रसंग में भी देखा जा सकता है कि अवैध रिश्ते शारीरिक तौर पर कहीं अधिक रोमांच देते हैं तभी तो अपने प्रेमी से संसर्ग के पश्चात वह फोन पर बताती है कि उसके नाखूनों और दांत के निशान अपने जि़स्म पर देखकर वह रोमांचित हो रही है।
वह मोहिन्दर और कत्याल के माध्यम से न केवल लेस्बिनय सम्बंधों की ओर बढ़ रहे है झुकाव की ओर संकेत किया गया है बल्कि इसके पीछे के संभावित कारणों की भी पड़ताल की गयी है। इसमें कोई दो राय नहीं कि महिलाओं की इस मानसिकता के पीछे कहीं न कहीं पुरुषों का अत्याचार भी जिम्मेदार है परन्तु यहां यह सवाल भी उठता है कि पुरुष वर्ग किसके अत्याचार से तंग आकर यह रास्ता अपनाता रहा है। कहीं इसके पीछे महिलाओं द्वारा पुरुषों को हेय दृष्टि से देखना तो नहीं! खैर..।
उपन्यास के रीतू उर्फ रीता तायवाला प्रसंग पर दो बातें। फैशन और बालीवुड की रंगीन दुनिया में अपनी पैठ बनाने के लिए लड़कियों को किस तरह जिस्म के भूखों का शिकार होना पड़ता है, यह रीतू उर्फ तायवाला से कोई पूछे। हालांकि हाल के अनारा गुप्ता और अन्य प्रकरण के बाद फैशन व बालीवुड के चेहरे से नकाब हट गया है और लोग पूरी तरह समझ चुके हैं कि चकाचौंध से भरी यह नगरी कितनी काली और अंधेरी है। महानगरों में न जाने कितनी रीताएं कपड़े की दुकानें चला रही होंगी। रीतू के माध्यम से उन 'अल्प माडर्न' लड़कियों की मानसिकता को दर्शाया गया है जो जिस्म से लेकर हर वो चीज बेचने को तैयार हैं जो उन्हें सफलता की सीढिय़ों तक ले जाती है।
कला के बाज़ार से सही सलामत निकल आये अंजू और मुबारक। बाज़ार कोई भी हो वहां केवल खरीदार होते हैं, सामान होते हैं और होते हैं और विक्रेता होते हैं लेकिन कई बार मानवीय रिश्ते बाज़ारवाद पर भारी पड़ जाते हैं। मुबारक और अंजू के माध्यम से इस ताने-बाने को बुना गया है।
इसमें एक तरफ जहां कला के नाम पर धार्मिक कर्मकांडों को इतर रूप में पेश किया गया है वहीं दूसरी तरफ यह भी दिखाया गया है कि सभी धर्मों के सह अस्तित्व के लिए के लिए एक-दूसरे के धर्म के प्रति सम्मान करने की आवश्यकता है। मुबारक के वक्तव्य इस सम्बंध में उल्लेखनीय हैं। उपन्यास में महानगर की महिलाओं की बदल रही जीवनशैली को सही तरीके से पकडऩे की कोशिश की गयी है। आज महानगरों की महिलाएं अपने मन मुताबिक पति नहीं मिलने पर दो-तीन शादियां करने से भी नहीं हिचकतीं। यही नहीं वे दूसरी महिलाओं को स्वावलम्बी बनाने के लिए कई स्वयंसेवी संस्थाएं भी चला रही हैं।
और रही बात उपन्यास में वर्णित एक फ्लाप नाटक की पाण्डुलिपि की तो यह केवल पाण्डुलिपि नहीं है बल्कि जीवन का वह हिस्सा है जो रोटी-कपड़ा-मकान के इन्तजाम की भागमभाग में फिसलकर कहीं गुम हो गया है। यहां फ्लाप नाटक की पाण्डुलिपि की खोज को दूसरे संदर्भ में भी देखा जा सकता है। पाण्डुलिपि के जरिए उन जीवन मूल्यों की ओर संकेत किया गया है जिन्हें हमारे पूर्वजों से हमें मिला था। इन मूल्यों को कथित माडर्न कल्चर में जीने वाले हम युवाओं न यह कहकर नेगलेक्ट कर दिया है कि ज़माना बहुत आगे बढ़ गया है और यह सब आउटडेटेड लोगों की निशानी है। लेखक को विश्वास है कि ये युवा एक दिन खोयी हुई पाण्डुलिपि (जीवन-मूल्यों) की तलाश शुरू करेंगे और तब न केवल वह पाण्डुलिपि मिलेगी बल्कि वह जीवन के अनछुए पहलू से भी रू-ब-रू होंगे।
दूसरे पाण्डुलिपि के जरिए लेखक यह भी कहना चाहता है कि सफलता की बनिस्बत असफलता जीवन के नये मायने दे सकती है। पाण्डुलिपि की तलाश में जीव दर्शन को भी देखा जा सकता है जिसमें लेखक ने यह बताने की कोशिश की है कि जीने के लिए एक मकसद का होना अत्यंत आवश्यक है। वहीं 'किसी की नज़र में चढ़े रहने के लिए अपने को उपयोगी बनाये रखने की आवश्यकता है' जैसी उक्तियों से उन्होंने तिलमिलाने वाले यथार्थ को भी व्यक्त किया है।
उपन्यासकार जिस शैली में लिखा है वह धर्मवीर भारती के उपन्यास सूरज का सातवां घोड़ा की याद दिलाता है, जिसमें कई कहानियां एक-दूसरे में गुंथी हुई हैं और हर कहानी में लेखक की उपस्थिति है।
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