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आकाशगंगा प्रकाशन,4760-61,23अंसारी रोड,दरियागंज, नयी दिल्ली-110002 मूल्य-150 रुपये

Monday, July 6, 2009

किस्सागोई और डिटेल्स दोनों पर बराबर पकड़

पुस्तक समीक्षा
-सकलदीप सिंह
78 साल की उम्र पार करने के बाद, यहां कोलकाता से दूर गुवाहाटी में वहां रह रहे अतिप्रिय अभिज्ञात को पढ़ना एक सुखद अनुभव था। इधर कुछ सालों में पढ़ना-लिखना कम हो गया है, लगभग छूट गया है। किन्तु एकाएक कूरियर से अभिज्ञात का नया उपन्यास 'कला बाज़ार' आया और साहित्य की दुनिया से फिर जुड़ना हुआ। अभिज्ञात को मैं बरसों से जानता हूं, सो उसे उत्सुकता से पढ़ा। नयी पीढ़ी की कविता लिखने वालों में जो चार-छह नाम लिये जा सकते हैं उनमें एक अभिज्ञात का भी है। उसकी निरन्तर रचनात्मकता मुझे आकृष्ट करती है। मैंने अभिज्ञात के पहले कविता संग्रह 'एक अदहन हमारे अन्दर' की समीक्षा करते हुए भी लिखा था कि उसमें पर्याप्त रचनात्मक संभावना है। इस बीच उसने उत्तरोत्तर कविता को सम्रद्ध किया है और उसकी कविताओं को पढ़कर मैं आश्वस्त होता रहा हूं कि हिन्दी कविता की दिशा सही है और नयी पीढ़ी गंभीर मानवीय मूल्यों के प्रति शिद्दत से सोच विचार कर रही है। अभिज्ञात के छह कविता संग्रह आये हैं, जिन्हें मैंने पढ़ा भी है और जब तक उस पर अपनी प्रतिक्रियाएं भी दी हैं। मेरे खयाल से इधर सात आठ साल से उसकी कोई किताब नहीं आयी। इधर वह कहानियां भी लिखने लगा है और उसका कथाकार रूप निखर रहा है। 'हंस' में उसकी एक कहानी 'कामरेड और चूहे' कुछ माह पहले देखी थी। अभिज्ञात का कुछ वर्ष पहले एक उपन्यास आया था लिव इन रिलेशन पर- 'अनचाहे दरवाज़े पर।' पुस्तक में मेरी भी टिप्पणी थी और मुझे उस समय भी लगा था कि अभिज्ञात आने वाले समय की आहटों को पहचानता है और समय से पहले उसने आने वाले युग की रचना दी है। अब यह नया उपन्यास 'कला बाज़ार' उसके पिछले उपन्यास से विस्तृत फलक को समेटे हुए है उसमें सिर्फ़ आने वाले कल की आहटें नहीं है बल्कि आज भी है बेलौस रूप में और बीते कल की अनूगूंजे हैं। वह आज के समाज के नये मूल्यों की गहरी शिनाख्त इस उपन्यास में करता दिखायी देता है और जहां से यह उपन्यास पंजाब से जुड़ता है वहां उपन्यास का फलक पर्याप्त विस्तृत हो जाता है। इतिहास की न सिर्फ अनुगूंज उसमें है, बल्कि बीते हुए उस दौर पर वह तल्ख टिप्पणी बन जाता है जिसे देश ने झेला है। देश के विभाजन के समय के पंजाब के हालात पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है उस कड़ी में अभिज्ञात की यह कृति भी शामिल हो जाती है। अभिज्ञात ने देश विभाजन के उस पहलू को छुआ है जो दोनों ही पक्षों की स्त्रियों की स्थिति का बयान करते हैं। 'कत्याल की तल्ख दुनिया में मैं' वाले खंड से उपन्यास वहां खड़ा है जहां 'तमस', 'पिंजर' और 'कितने पाकिस्तान' जैसे उपन्यास लिखे गये हैं और अभिज्ञात भीष्म साहनी, अमृता प्रीतम, कमलेश्वर जैसे उपन्यासकारों के साथ कहीं खड़ा नज़र आता है। अपनी किस्सागोई और हालात के वर्णन के मामले में अभिज्ञात भी कमतर नज़र नहीं आता। फिल्म की दुनिया की कास्टिंग काउच, पेंटिग की दुनिया के बाजार मूल्य और नयी नारी के नये मूल्यों को अभिज्ञात ने जिस बेलौस और विश्वसनीय ढंग से व्यक्त किया है वह हमें कई बार आहत व हतप्रभ भी करता है और अपने सोचे हुए पर फिर से विचार करने को प्रेरित भी। आशा है इस उपन्यास की ओर पाठक वर्ग का ध्यान जायेगा। मैं अपने कवि मित्र कीर्त्ति नारायण मिश्र के इस मंतव्य से एकदम सहमत हूं कि अभिज्ञात में मनोहर श्याम जोशी व उदय प्रकाश जैसे उपन्यासकारों की सी प्रतिभा है और वह किस्सागोई और डिडेल्स दोनों पर बराबर अपनी पकड़ बनाये हुए है। अभिज्ञात के कथाकार के रूप में उज्ज्वल भविष्य की मैं कामना करता हूं, कवि तो वह अच्छा है ही।
समीक्षक-Sakaldip Singh, c/o Sujeet Singh,
Credit Manager, Constration Equipment, , ICICI Bank, Ohio Shoping Complex, 2nd Floor, M.G. Road, Fancy Bazar, Guwahati-781001

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