पुस्तक समीक्षा
-कमलेश पाण्डेय
साभारःपाखी
आलोच्य उपन्यास में वर्णित पात्र अपनी तमाम विसंगतियों के साथ जीवन संघर्ष में जुटे हुए हैं। खासकर उपन्यास में वर्णित सभी नारी पात्रों को समाज की सबसे क्रूर सच्चाई 'महिला का शोषण' से जूझना पड़ रहा है। पुरुष पर विश्वास और अविश्वास के सम्बंधों के बीच उपन्यास के नारी पात्र आज की जटिल सामाजिक व्यवस्था के कुछ चित्र पाठकों के सामने पेश करते हैं।
एक ओर मोरा जैसी पात्र दो-दो बार विवाह सम्बंधों के बावज़ूद स्वाभाविक जीवन नहीं व्यतीत कर पाती है, जबकि वह आर्थिक रूप से भी पराश्रित नहीं है। उसे अपने बच्चों तथा पतियों तक को त्यागना पड़ता है। इसी प्रकार कत्याल की मां महिन्दर के हवाले भारत-पाक विभाजन के दौरान बंटवारे की त्रासदी को झेलने वाली तथा सबसे अधिक पीड़ित व प्रभावित महिला वर्ग का उल्लेख कर अभिज्ञात ने उस काल की ज्वलंत पीड़ा को एक बार फिर सामने रखा है, एक नये प्रस्थान बिन्दु के साथ।
समय-काल के अनुरूप परिस्थितियां व समस्याएं भी बदल रही हैं। इसी के अनुसार विभिन्न पात्रों के सोच व उनकी प्रतिक्रियाएं भी बदलती हैं। भूमंडलीकरण के कारण भारतीय समाज पर वैचारिक तौर पर क्या रद्दोबदल हो रहा है उसकी स्पष्ट झलक उपन्यास के नारी पात्रों में दिखायी देती है। उपन्यास की नारीय अपना युगीन मुहावरा ख़ुद गढ़ने में जुटी है। चाहे वह दैहिक नैतिकता के मसलें हों या भावात्मक।
उपन्यास में विशेष तौर पर देखा जा सकता है कि अभिज्ञात की नारी पात्र ख़ुदमुख्तार है तथा अपने इस शोषण का प्रतिकार भी अपने तरीके से करती हैं। मोरा अपनी मां के प्रति द्वेष का भाव कायम रखती है अतः जब उपन्यास के नायक अतुल को उसकी मौत की बात बताती है तब अतुल की आंखों में आंसू देख, सहसा सम्पर्क कायम करती है। इसी प्रकार कत्याल भी स्वेच्छया व्यास के किनारे नायक से दैहिक सम्बंध कायम करती है। वहीं उपन्यास का एक और किरदार अतुल की पत्नी अंजू भी स्वयंसिध्दा की भांति अपनी पेंटिंग्स के माध्यम से समाज में स्थापित होने का संघर्ष स्वयं के बलबूते कर जारी रखती है। उपन्यास की एक और पात्र रीतू नाटकों तथा फ़िल्मों व माडलिंग के माध्यम से इस समाज में अपनी तथाकथित सफलता के जरिए अपनी पहचान कायम रखना चाहती है, जिसके लिए उसे अपने शरीर की कीमत तक चुकाने में कोई गुरेज नहीं।
उपन्यास का नामकरण कला बाज़ार यहां सार्थक दिखता है, क्योंकि उपन्यास के नारी पात्र मोरा, कत्याल, रीता उर्फ़ रीतू और अंजू गायन, माडलिंग, फ़िल्म तथा चित्रकला के क्षेत्र से जुड़ी हैं। और नायक पत्रकारिता से। आज जब घर में बाज़ार का प्रवेश हो चुका है, ऐसे में कला के क्षेत्र में बाज़ार के प्रवेश को भला कैसे रोका जा सकता है।
स्त्री पात्र जहां अपनी जिजीविषा से संघर्षरत इस बाज़ार में जीवन बिताने को बाध्य हैं, वहीं उन्हें अपने आंसू बहाने को अतुल का सहज कंधा मिलता है, जो कि एक ओर जहां प्लेटोनिक सम्बंधों वहीं दूसरी ओर सहज मानवीय सम्पर्कों के प्रति आश्वस्त करता है। बाज़ार और खासकर उसके
कारण स्त्री-पुरुष सम्बंधों पर पड़ रहे असर का कलात्मक निरुपण इस उपन्यास में अभिज्ञात ने किया है। जिसमें कहीं-कहीं उनकी पत्रकारिता की विधा की स्पष्ट झलक दिखती है जिसके कारण भाषा पारदर्शी व बोधगम्य हुई है, चरित्रों की बहुलता के बावजूद तारतम्यता नहीं टूटी है व उपन्यास की पठनीयता अंत तक बरकरार रही है, जिससे लेखक की अतिरिक्त सफलता मानी जानी चाहिए।
प्रकाशक-आकाशगंगा प्रकाशन,4760-61,23अंसारी रोड,दरियागंज, नयी दिल्ली-110002 मूल्य-150 रुपये
-कमलेश पाण्डेय
साभारःपाखी
आलोच्य उपन्यास में वर्णित पात्र अपनी तमाम विसंगतियों के साथ जीवन संघर्ष में जुटे हुए हैं। खासकर उपन्यास में वर्णित सभी नारी पात्रों को समाज की सबसे क्रूर सच्चाई 'महिला का शोषण' से जूझना पड़ रहा है। पुरुष पर विश्वास और अविश्वास के सम्बंधों के बीच उपन्यास के नारी पात्र आज की जटिल सामाजिक व्यवस्था के कुछ चित्र पाठकों के सामने पेश करते हैं।
एक ओर मोरा जैसी पात्र दो-दो बार विवाह सम्बंधों के बावज़ूद स्वाभाविक जीवन नहीं व्यतीत कर पाती है, जबकि वह आर्थिक रूप से भी पराश्रित नहीं है। उसे अपने बच्चों तथा पतियों तक को त्यागना पड़ता है। इसी प्रकार कत्याल की मां महिन्दर के हवाले भारत-पाक विभाजन के दौरान बंटवारे की त्रासदी को झेलने वाली तथा सबसे अधिक पीड़ित व प्रभावित महिला वर्ग का उल्लेख कर अभिज्ञात ने उस काल की ज्वलंत पीड़ा को एक बार फिर सामने रखा है, एक नये प्रस्थान बिन्दु के साथ।
समय-काल के अनुरूप परिस्थितियां व समस्याएं भी बदल रही हैं। इसी के अनुसार विभिन्न पात्रों के सोच व उनकी प्रतिक्रियाएं भी बदलती हैं। भूमंडलीकरण के कारण भारतीय समाज पर वैचारिक तौर पर क्या रद्दोबदल हो रहा है उसकी स्पष्ट झलक उपन्यास के नारी पात्रों में दिखायी देती है। उपन्यास की नारीय अपना युगीन मुहावरा ख़ुद गढ़ने में जुटी है। चाहे वह दैहिक नैतिकता के मसलें हों या भावात्मक।
उपन्यास में विशेष तौर पर देखा जा सकता है कि अभिज्ञात की नारी पात्र ख़ुदमुख्तार है तथा अपने इस शोषण का प्रतिकार भी अपने तरीके से करती हैं। मोरा अपनी मां के प्रति द्वेष का भाव कायम रखती है अतः जब उपन्यास के नायक अतुल को उसकी मौत की बात बताती है तब अतुल की आंखों में आंसू देख, सहसा सम्पर्क कायम करती है। इसी प्रकार कत्याल भी स्वेच्छया व्यास के किनारे नायक से दैहिक सम्बंध कायम करती है। वहीं उपन्यास का एक और किरदार अतुल की पत्नी अंजू भी स्वयंसिध्दा की भांति अपनी पेंटिंग्स के माध्यम से समाज में स्थापित होने का संघर्ष स्वयं के बलबूते कर जारी रखती है। उपन्यास की एक और पात्र रीतू नाटकों तथा फ़िल्मों व माडलिंग के माध्यम से इस समाज में अपनी तथाकथित सफलता के जरिए अपनी पहचान कायम रखना चाहती है, जिसके लिए उसे अपने शरीर की कीमत तक चुकाने में कोई गुरेज नहीं।
उपन्यास का नामकरण कला बाज़ार यहां सार्थक दिखता है, क्योंकि उपन्यास के नारी पात्र मोरा, कत्याल, रीता उर्फ़ रीतू और अंजू गायन, माडलिंग, फ़िल्म तथा चित्रकला के क्षेत्र से जुड़ी हैं। और नायक पत्रकारिता से। आज जब घर में बाज़ार का प्रवेश हो चुका है, ऐसे में कला के क्षेत्र में बाज़ार के प्रवेश को भला कैसे रोका जा सकता है।
स्त्री पात्र जहां अपनी जिजीविषा से संघर्षरत इस बाज़ार में जीवन बिताने को बाध्य हैं, वहीं उन्हें अपने आंसू बहाने को अतुल का सहज कंधा मिलता है, जो कि एक ओर जहां प्लेटोनिक सम्बंधों वहीं दूसरी ओर सहज मानवीय सम्पर्कों के प्रति आश्वस्त करता है। बाज़ार और खासकर उसके
कारण स्त्री-पुरुष सम्बंधों पर पड़ रहे असर का कलात्मक निरुपण इस उपन्यास में अभिज्ञात ने किया है। जिसमें कहीं-कहीं उनकी पत्रकारिता की विधा की स्पष्ट झलक दिखती है जिसके कारण भाषा पारदर्शी व बोधगम्य हुई है, चरित्रों की बहुलता के बावजूद तारतम्यता नहीं टूटी है व उपन्यास की पठनीयता अंत तक बरकरार रही है, जिससे लेखक की अतिरिक्त सफलता मानी जानी चाहिए।
प्रकाशक-आकाशगंगा प्रकाशन,4760-61,23अंसारी रोड,दरियागंज, नयी दिल्ली-110002 मूल्य-150 रुपये
समीक्षक--कमलेश पांडेय
40/2 विजय कुमार मुखर्जी रोड, सलकिया,
हावड़ा-711106 मोबाइल-09831550640
40/2 विजय कुमार मुखर्जी रोड, सलकिया,
हावड़ा-711106 मोबाइल-09831550640
8 comments:
स्वागत है महोदय।
आशा है कि एक साहित्यकार के पदार्पण से ब्लॉग जगत में अच्छी समीक्षा का अकाल नहीं रहेगा।
कला बाज़ार।
कला में जब बाज़ार घुसता है तो कला का ह्यास होता है।
बाज़ार में जब कला घुसती है तो बाज़ार की थोडी गरिमा बढ़ती है शायद।
शीर्षक में ही अच्छा अंतर्द्वंद है।
सुस्वागतम्...
Upanyas ka sheershak, ise padhne ki lalsa paida kar raha hai. kripya batayein ki yah kis parakashan se prakashit hua hai aur dilli mein kahan uplabdh hai. Kya Hindi book center par mil sakta hai?
Blog jagat me aapka swagat hai.
narayan narayan
अच्छा है अंदाज़े-बयाँ।
सुस्वागतम्।
Bahut sundar rachana..really its awesome...
Regards..
DevSangeet
बहुत सुंदर…..आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्लाग जगत में स्वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्त करेंगे …..हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।
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