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Monday, June 22, 2009

देह की दुनिया की पड़ताल


पुस्तक समीक्षा
-सुधीर राघव
अभिज्ञात का उपन्यास कला बाजार कला, साहित्य, मॉडलिंग और पत्रकारिता के अंदर की दुनिया की पड़ताल है। इसकी पृष्ठभूमि भी खासा विस्तृत है, जो पूर्व में कोलकाता से लेकर पश्चिम में अमृतसर तक फैली है। एक-एक कर कड़ियां जुड़ती हैं और कथ्य रोचक बन पड़ा है।सामाजिक सरोकारों तथा नैतिक मूल्यों में पिछले एक-डेढ़ दशक में जो बदलाव आए हैं उन्हें लेकर अब बहस भी अब बासी और फीकी लगने लगी है। लेखक ने इसी बहस की उपेक्षा की है और अपनी बात बेबाकी से रखी है। उसका यही अंदाज इस उपन्यास को समय के साथ लाकर खड़ा कर देता है। वैसे विवाहेतर और समलैंगिक संबंधों पर जो कुछ लिखा जाता रहा है, उसमें संस्कार में लिपटे होने का भ्रम वह झिझक पैदा करता है कि अक्सर लेखक समाज से दो कदम पीछे ही रह जाता है। अभिज्ञात उन्हीं वर्जनाओं को लांघ गए हैं, इसलिए आत्मकथ्य शैली में लिखा गया यह उपन्यास काल्पनिक होते हुए भी आत्मकथा लगता है।उपन्यास के स्त्री पात्र अपने देहतर वजूद के लिए दौड़ते हैं मगर पुरुष समाज का दृष्टिकोण देह शक्ति के उनके भ्रम को टूटने नहीं देता। मोरा उसकी मां रत्ना हो या रीता ये सभी देह के चक्रव्यूह में नैतिक मूल्यों को पराजित करती हैं और खुद भी उसी देह से परास्त होती हैं।कला बाजार में यही है देह की शक्ति, यह ब्लैकहोल की तरह सबकुछ निगल लेती है। इसमें जो डूबते हैं वे पछताते हैं और बिना डूबे कोई रह नहीं पाता। इस तरह उपन्यास का दर्शन, उसकी रोचकता और विस्तार उसे पठनीय बना देता है।संभवतः लेखक के विचारों से सहमत हो पाना सहज न हो मगर ऐसे विचार आपके चारों ओर घूमते हैं, बिना आपकी सहमति के इंतजार के।( साभारः हिन्दुस्तान, चंडीगढ़, 21 जून 2009 )

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