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आकाशगंगा प्रकाशन,4760-61,23अंसारी रोड,दरियागंज, नयी दिल्ली-110002 मूल्य-150 रुपये

Monday, November 15, 2010

एक भला आदमी-हनू दा

जब वह धड़कते हृदय से स्टूडियो के चक्कर काटा करती थी उन्हीं दिनों हनू दा से उसकी मुलाक़ात हुई थी। हालांकि उसकी बातचीत से उसको आशा की किरण दिखायी दी थी। वरना यहां तो आदमी को आदमी समझा ही नहीं जा रहा था। जिसे देखो वह दुत्कारने को बैठा हुआ था। कोई सीधे मुंह बात तक करने को तैयार नहीं था। स्टूडियो के भीतर घुसने के लिए भी उसकी मां ने पहरेदारों को सौ-पचास का नोट थमाती रहती थी। वे दस सवाल दाग देते थे किससे मिलना है? एप्वांइंटमेंट लेकर आयी हैं? वगैरह-वगैरह।

कोलकाता की फिल्मी दुनिया के बारे में जानकारी लेने के लिए उसकी मां फ़िल्मी पत्रकाएं व बांग्ला अख़बार के शुक्रवार के वे पृष्ठ पढ़ती रहती थीं, जिनमें फ़िल्मों के बारे में जानकारियां रहती थीं। हालांकि ज़्यादातर उनमें गॉसिप रहती थी, मगर जो भी काम लायक जानकारी उन्हें नज़र आती डायरी में नोट करतीं जातीं। वे जानकारियां कुछ ख़ास तरह की होतीं मसलन-कौन फ़िल्म बनाने की तैयारी कर रहा है? किसका मुहूरत कब है? किसकी शूटिंग कहां चल रही है? कौन कलाकार दूसरे नये कलाकारों को मौका दिलवाने में दिलचस्पी रखता है? इन जानकारियों से लैस होकर वे बेटी के लिए काम के जुगाड़ की तलाश में निकलती थीं। उन्होंने जो अनुभव किया वह यह कि किसी भी डायरेक्टर के पास जरा सा भी काम हो तो वह ऐसा दिखाता था जैसे कि दुनिया का सबसे व्यस्ततम डायरेक्टर वही हो। एक फ़िल्म फ्लोर पर हो तो वह चार फिल्में गिनाता था। वह सीधे कहता कि बात करने की एकदम फ़ुरसत नहीं है। समय मांगने पर वह सीधे तीन महीने बाद की कोई तारिख बता देता। जिनकी शूटिंग चल रही होती वे तो ऐसे हाव-भाव प्रदर्शित करते जैसे कि वे भीख मांग रहे हैं, वह भी उस इलाके में जहां भीख मांगना वर्जित हो।

मां-बेटी हसरत के घंटों कभी पास, कभी दूर से शूटिंग होते हुए देखती रहतीं। कैसे एक मिनट का संवाद भी हीरो-हिरोइन नहीं बोल पा रहे हैं। टेक पर टेक हुए जा रहे हैं। बार-बार कलाकारों के चेहरे से पसीना पोछा जा रहा है। अलबत्ता दोनों को यह देखकर कुछ सुकून ज़रूर मिलता ज़्यादातर हिरोइनें तक रीतू से बेहतर कतई नहीं थीं और ना ही वैसी, जैसी वे परदे पर दिखाई देती हैं।

इन्हीं कोशिशों का नतीज़ा था कि उसकी मुलाकात हनू दा से हुई। हनू दा ने उसकी ज़िन्दगी में वह तूफान ला दिया था जिसके बाद वह फिर ग्लैमर की दुनिया से बग़ैर कुछ हासिल किये लौटने को तैयार नहीं थी। जो कुछ पाना है अब इसी क्षेत्र में पाना है कि ज़िद उसने ठान ली थी। यह बाद की घटना है इससे पहले वह मुझसे मिल चुकी थी। कोलकाता के एक नामचीन नाट्य-निर्देशक को मेरा नाटक पसंद आ गया था। उन्होंने हालांकि रिहर्सल शुरू कर दी थी लेकिन अभी मुख्य स्त्री-पात्र को लेकर कोई निर्णय नहीं हुआ था। इसी बीच गांगुली रीतू के बारे में कुछ अख़बार में लिख देने के लिए मेरे यहां उसकी तस्वीरों के साथ आया था। उसमें यह भी ज़िक्र था कि वह अभिनय और फ़ैशन की दुनिया में कदम रखने जा रही है। मुझे उसकी तस्वीर देखने के बाद लगा था कि यह मेरे नाटक में मुख्य भूमिका निभा सकती है। मैंने गांगुली से शर्त रखी कि उसका इंटरव्यू खुद लूंगा, उसे मुझसे मिलाना होगा।

और धर्मतल्ला के 'कैफे डि मोनिको' में रीतू, गांगुली व मैंने एक साथ कॉफी पी थी। उस दिन रीतू बहुत कम बोली थी। ज़्यादातर गांगुली ही उसकी हां में हां मिलाता रहा था। इस बात के प्रति मुझे लगातार आश्वस्त करता रहा था कि इंटरव्यू छपने के बाद रीतू की ओर से मेरे लिए एक शानदार पार्टी होगी। 'शानदार' कहते हुए उसने अजब का इशारा किया था, जिससे रीतू झेंप सी गयी थी।

मैंने उसी वक़्त उससे कहा था कि मेरी इच्छा है कि वह मेरे नाटक में अभिनय करे। हालांकि यह फैसला निर्देशक को करना है। मैंने यह आश्वस्त किया था कि उसे प्रचार चाहिए तो इस तरह के भी काम करने चाहिए। आखिर वह अच्छा अभिनय कर पायी तो नाटक की समीक्षा में उसकी चर्चा होगी ही। प्रचार मिलने की इच्छा से ही उसने निर्देशक से सम्पर्क किया था और वह तैयार हो गया था। इधर निर्देशक की इच्छा के अनुसार मैं अक्सर रिहर्सल के दौरान मौज़ूद रहा। यह भी होता रहा कि कलाकारों की क्षमता और विशेषता को देखते हुए मैंने संवादों में फेरबदल भी किया।

मुझे यह स्वीकार करने में हिचक नहीं कि मेरी रिहर्सल में उपस्थिति की वज़ह मंचन को बेहतर करने के लिए कम थी और रीतू की क़रीबी का अवसर हासिल करना अधिक। वह भी मेरे प्रति आकर्षत थी और उम्र के फ़ासले के बावज़ूद दोस्तों सा व्यवहार करने लगी थी। कभी-कभार वह मेरे घर भी आने लगी थी। बाद में तो वह अक्सर मेरी पत्नी अंजू के साथ देखी जाने लगी जो मेरे लिए कुछ हैरत पैदा करने वाला था। उन्हें मैंने कई बार संदिग्ध परिस्थितियों में घर में देखा था। उनकी बातें भी अंतरंग होती थीं जो मुझ तक नहीं पहुंच पाती थीं। वे आंखों ही आखों में इशारे करतीं और मैं कुछ नहीं समझ पाता। उनके सम्बधों में वहीं गंध आती थी जिनसे पीछा छुड़ाकर मैं अमृतसर से लौट आया था। मन में कहीं न कहीं चोर होने के कारण मैं अंजू से साफ़ तौर पर कभी पूछ नहीं पाया था। हमारे बीच उस विश्वसनीयता का अभाव था जो एक मित्र के प्रति होती है। हमने कभी अपने मन की बातें एक-दूसरे के सामने रखी ही नहीं थी। हमने केवल सम्बंधों का निर्वाह किया था। हालांकि इन सम्बंधों को केवल ढोया जाना नहीं कहा जा सकता है क्योंकि हमने हमेशा एक दूसरे की मदद करने की कोशिश की और यह चाहा कि किसी प्रकार दूसरे को कोई कष्ट न पहुंचाया जाये। यह भी उतना ही सच था कि कि हमने एक-दूसरे की भीतरी दुनिया को महसूस करने की कोशिश नहीं की थी। साथ-साथ होते हुए भी उसके और मेरे मन की दुनिया एकदम अलग थी। न तो मैंने कभी उसे अन्य पतियों की तरह किसी बात पर डांटा था और ना ही उसने कभी किसी मुद्दे पर उलाहने या ताने दिये। उसने कभी वे सवाल जो मुझे परेशान कर सकते थे, मेरे सामने कभी नहीं आने दिया।

अमृतसर से लौटने के बाद मैं कुछ अरसे फ्रीलांसिंग के लिए मज़बूर रहा। कोई कोलकाता से कोई अख़बार मुझे अपना संवाददाता रखने को उत्सुक नहीं दिखा, जबकि मैं कुछ दिन कोलकाता रहने के मूड में था। इस दौरान अंजू ने इस बात का कभी एहसास नहीं होने दिया कि मैं बेरोज़गार हो चुका हूं। मेरे तमाम ख़र्च उसी तरह चलते रहे। उसका एक कारण तो यह था कि बैंक में मेरा और उसका एक साझा खाता भी था जिसमें पचीस-तीस हजार की रकम हमेशा वह रखती थी। उसने कह रखा था कि जब कभी मुझे ज़रूरत हो उसमें से मैं बेहिचक निकाल लिया करूं। जिसकी वजह से मैं उससे आवश्यकता होने पर पैसे मांगने से बचा रहा।

हालांकि मुझे कभी-कभार यह ज़रूर लगता था कि मैं उससे कितना कम कमा पाता हूं, मगर ज़्यादातर अपना खर्च निकाल ही लेता था। इधर कई हिन्दी अधिकारी मेरी पुरानी लिखी किताबों को इधर-उधर से पढ़कर प्रशंसक बन चुके थे। जिनसे कार्यक्रमों में मैं बतौर अतिथि या विभागीय प्रतियोगिताओं का निर्णायक बनाया जाता था और बदले में कुछ न कुछ हासिल हो जाता। आय को ध्यान में रखते हुए इन्हीं दिनों बांग्ला उपन्यासों का भी हिन्दी अनुवाद किया।

मन में कहीं ने कहीं यह बात थी कि मैं अंजू के कारण आर्थिक तौर पर स्वतंत्र हूं और बग़ैर किसी आर्थिक दबाव के लिख पढ़ सकता हूं। न तो मुझे स्तरीयता को लेकर कोई समझौता करने की ज़रूरत है और ना ही किसी माइने में किसी के सामने झुकने की। इसकी वज़ह से मुझे यह लाभ हुआ कि मैं अपने लिखे की अच्छी क़ीमत ले पाने में सफल रहा। ना कहने की मुझमें ताक़त थी। मुझे सहसा यह पता चला कि ना कहने की ताक़त बहुत बड़ी ताक़त है और इसी से बहुत कुछ हासिल हो जाता है। ना कहने वालों को दुनिया इज्ज़त की नज़र से देखती है और उसे क़ाबिल भी मानती है।

संस्थान उसकी काबिलियत नहीं उसके अस्वीकार करने की क्षमता के कायल हो जाते हैं। वे अपने मन में यह मानने लगते हैं कि अमुक क़ाबिल है इसलिए वह अपनी मनचाही क़ीमत वसूल रहा है।

यही बात मैंने देखी अंजू के पेंटिंग्स के मामले में भी। वह अपनी पेंटिंग्स की मनचाही क़ीमत नहीं मिलने तक उसे बेचने को राज़ी नहीं होती थी। मुझे इसी इनकार की मुद्रा के कारण आखिरकार एक अख़बार में स्थानीय संपादक बनने का अवसर मिल गया था। मैं बेरोजगारी के बावज़ूद अच्छी ख़ासी रकम व बड़े ओहदे के लिए अड़ा था। सुविधाओं की मांग पर भी। शायद इसलिए भी मुझे योग्य मान लिया गया था।

...लेकिन रीतू इनकार की स्थिति में नहीं थी। उसने स्वीकार का रास्ता अपनाया हुआ था। उसकी नज़र केवल पाने पर थी। वह हर हाल में जो चाहती थी वह हासिल करना चाहती थी। बदले में क्या देना पड़ सकता है यह उसके लिए गौण था। उसकी आंख अर्जुन की तरह केवल मछली की आंख पर रहे यही सिखाया गया था जो अब उसकी मानसिकता बन चुकी थी। यह भी था कि वह बिना मतलब के किसी को एक क्षण भी नहीं दे सकती थी। उसे सदाचार के उन गुणों से भी नफ़रत सी थी जिनके कारण लोगों का काफी वक़्त जाया होता है। उन शब्दों से भी, जिसमें कोई उष्मा नहीं होती जो यूं ही बोले और सुने जाते हैं। किसी से फ़ोन पर भी वह सीधे मुद्दे पर ही बात करना पसंद करती थी। हालांकि, काम निकालने के लिए उसने वे हाव-भाव और शब्द सीख लिए थे जिनका इस्तेमाल उसे करना था मगर ये उसके आवरण थे। वह जिन्हें हथियार ही कहना पसंद करती थी, क्योंकि वह काम निकालने को शिकार करने की ही संज्ञा देती थी। किसी से मनचाहा काम निकालने पर उसमें आत्मविश्वास बढ़ता था। उसे लगता था कि उसमें क़ामयाबी के गुण सचमुच में हैं।

उसे भी किसी से काम निकालना आता है। उसमें एक ख़ास किस्म की क्रूरता थी, जिससे मैं कई बार सहम सा जाता था। उसकी मानसिकता मुझसे एकदम विपरीत थी और मेरी चिंता का विषय यह था कि मेरे मन में उसके प्रति एक आकर्षण सा था। मुझमें कहीं न कहीं यह भावना जन्म लेने लगी थी कि रीतू मेरे क़रीब रहे, या किसी भी अर्थ में मैं भी उसे हासिल कर सकूं। इसके लिए मेरा उसकी नज़र में उपयोगी बने रहना बेहद ज़रूरी था, वरना वह शायद मुझे पहचानने तक से इनकार कर दे। मैं उसे असर उसकी मनचाही कामनाओं को जानने के बाद आश्वासन सा देने लगा था और बाद में अपने दिए आश्वासन को पूरा करने की कोशिश भी करता। इसी क्रम में मैंने कुछ लेख लिखकर पत्रकार मित्रों को दिया था कि वे उन्हें चाहे जिसके नाम से प्रकाशित कर लें, जिससे रीतू का प्रचार मिले। और ऐसा हुआ भी। उसकी बातचीत से इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता की मैं उसके लिए सचमुच 'उपयोगी हूं।' यह उसके शदकोश का एक महत्वपूर्ण शब्द था और वह इसी से लोगों की अहमियत को आंकती थी। वह यह मानती थी कि हर व्यक्ति को अपना मूल्यांकन करते समय इसी पैमाने पर विचार करना चाहिए कि वह दूसरे के लिए कितना उपयोगी हो सकता है।

इन सबके परे मेरी एक चिंता यह भी थी कि वह अंजू से क्यों जुड़ी हुई है? वह अंजू के स्टूडियो में क्या करती है? वहां से वह कई बार अपने कपड़े संभालती हुई निकली है। मुश्क़िल यह थी कि जब वह अंजू से स्टूडियो में होती थी स्टूडियो का रहस्यमय ढंग से दरवाज़ा अन्दर से बंद होता था, सिटकनी सहित। आपको बता दूं कि इस बीच अंजू ने मेरा बनाया हुआ मकान बेच दिया था और अपनी पसंद का मकान बनवाया था। उसी में उसका स्टूडियो था, जिसमें वह पेंटिंग करती थी। उसमें वह चौदह बड़ी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी एक साथ कर सकती थी। वह अपना काफी समय उसी में बिताती थी। काम के वक़्त वह डिस्टर्ब पसंद नहीं करती थी, इसलिए स्टूडियो का दरवाजा भीतर से बंद रखती थी मगर वह अन्दर सिटकनी नहीं लगाती थी। मैंने भी उसकी रचना-प्रक्रिया को समझने के बाद कभी डिस्टर्ब नहीं किया। जब वह बाहर आती तभी बात होती।

मैंने जब बातों ही बातों में रीतू से अंजू के प्रति उसके लगाव के बारे में पूछना चाहा तो उसने हर बार बात को बड़ी कुशलता से टाल दिया। मुझे भी स्पष्ट लगा कि वह इस मसले पर किन्हीं वज़हों से बात करना नहीं चाहती। मैं उससे बातें कुरेद-करेद कर नहीं पूछ सकता था। फिर रीतू के पास अपनी ही बातों से फ़ुरसत नहीं थी। हमारी बातचीत के दौरान केवल वह छाई रहती। उसकी ख्वाइशें उसकी, मज़िलें उसके रास्ते। यही बातचीत के केंद्र रहते। वह धीरे-धीरे खुलने लगी थी और कई बार वह कुछ ऐसी बातें भी अपनी रौ में बता जाती जो नहीं बताना चाहती थी। गांगुली और हनू दा की चर्चाएं भी उन्हीं बातों में से एक थीं। रीतू ने एक बार सहसा बता दिया था-''यह जो भद्दी शक्ल वाला गांगुली है वह जब उसके खूबसूरत ज़िस्म पर चढ़ा तो उसे मितली सी आने लगी थी। वह यह सोचकर उसके साथ शारीरिक सम्बंध झेल गयी कि वह किसी खास प्रकार की यौगिक क्रिया में शामिल है, जिससे उसके सौंदर्य में निखार आयेगा। जिस समय वह उसके ज़िस्म से खेल रहा था वह कुछ और सोच रही थी। ठीक उसी तरह जैसे 'सेक्सी' चेहरा बनाने को कहा जाता है तो वह चाकोबार के स्वाद की कल्पना में खो जाती है, जिसे वह पसंद करती है।''

उसने यह भी बताया कि 'जब गांगुली ने फोटो खींचते समय मेरा अधोवस्त्र भी उतार दिया था तो मुझे लगा कि वह फोटो ही खींचेगा, जिसके लिए उसने मना कर दिया था। यह जानकर उसे संतोष हुआ कि ऐसा कोई मामला नहीं है। वह अपने भी कपड़े उतारने लगा था।'

उसने स्वीकार किया कि ''मैं यह देखना चाहती थी ज़रूरत पड़ने पर मैं किसी पुरुष से देह सम्पर्क को किस प्रकार झेल पाऊंगी? यदि मैं गांगुली जैसे नाटे, काले व भद्दे तथा किसी हद तक बदबूदार व्यक्ति को झेल गयी तो मैं हर किसी को झेल लूंगी। मैं खुश थी कि मैं गांगुली को संतुष्ट कर सकी थी। अब मेरे लिए कोई बाधा नहीं थी। अब मुझे कोई भी क़ामयाब होने से नहीं रोक सकता। मैं यह भली-भांति जानती हूं कि दुनियां में सदियों से नारी जिस्म से बढञकर कोई आकर्षण पैदा नहीं हो सका है। मनुष्य की सारी प्रगति औरत का तोड़ नहीं गढ़ पायी है। इस बाज़ारवाद के दौर में भी महंगी से महंगी वस्तु भी औरत से कम आकर्षक है। उसी का नतीज़ा है कि हर वस्तु को बेचने के लिए औरत की ज़रूरत पड़ती है। वस्तु के साथ औरत का होना औरत की हैसियत को दर्शाता है। हर दौर में फ्रायड ही प्रासंगिक हैं और बने रहेंगे। मार्क्स नहीं। औरत को लेकर मार्क्स ने ठीक से नहीं सोचा यही उनके दर्शन की सबसे बड़ी कमज़ोरी रही। हर दौर का कलाकार उसी औरत के ज़िस्म को अपनी कलाकृतियों में अंकित करता रहा जो पहले भी अंकित हो चुका था मगर हर बार एक नयी चमक लोगों को दिखी। यह ऐसा आकर्षण है जो कभी ख़त्म नहीं होने वाला है। सभ्यता के विकास के जितने भी दौर रहे उसमें औरत ही हावी रही, वही केंद्र में रही। वह पाषाण काल हो या यह इकीसवीं सदी केंद्रीयता औरत की मिलेगी। यह सब मैंने अपनी मां से सुना था लेकिन ख़ुद महसूस कर सही पाया है।''

वह भी अपनी मां की तरह की सोचने लगी थी-''पुरुष ने औरत को उसकी असली शक्ति को भुलाने की तमाम साजिशें रचीं हैं। उसी का नतीज़ा है कि कई औरतें गुलामी की ज़िन्दगी जी रही हैं। वरना औरत राज़ करने के लिए बनी है। पुरुष गुलामी के लिए। और वह राज करेगी। गुलामी नहीं। गांगुली को झेलने के बाद उसमें विश्वास जगा है कि पुरुष को झेलना बहुत बड़ी बात नहीं। अब उसे शरीर की शक्ति का इस्तेमाल का तरीका सीखना है। मैं यदि तरीक़े से इस्तेमाल कर सकी तो वह दिन दूर नहीं जब मैं वह सब हासिल कर सकूंगी, जो पाना चाहती हूं।''

हनू दा का प्रकरण भी इसी प्रकार का था मगर उसमें फ़र्क था। वह हनू दा से बेहद खफ़ा दिखी। उसी ने एक दिन बताया कि हनू दा से जब वह पहली बार स्टूडियो में मिली थी तो वह बड़ी भद्रता से पेश आया था। उसने उससे अधिक उसकी मां से बातचीत की थी। यह भी पूछा था-''क्या वे सचमुच चाहती हैं कि उनकी बेटी फिल्मों में काम करे? वे फिर से सोच लें क्योंकि यह फ़िल्मी दुनिया बहुत अच्छी नहीं मानी जाती। यहां से कोई लड़की अपनी इज्ज़त और कोई पुरुष अपनी दौलत लुटाए बिना लौट जाये तो वह सौभाग्यशाली ही माना जायेगा। फ़िल्म में लगे लोगों की नज़र इन्ही दो चीज़ों पर होती है।''

हनू दा की स्पष्टवादिता ने उसकी मां को एकबारगी हकबका दिया था। बाद में उन्हें लगा था कि हनू दा बेहद एक भला आदमी है। उसने हक़ीकत बता दी है। हर लाइन में भले लोग होते हैं, इतफाक से उनमें से एक वह भी है। वह अक्सर हनू दा के यहां जाने लगी थी। जहां हनू दा एक पट-कथाकार के साथ उलझे हुए मिलते। कभी वे पट-कथाकार को आवश्यक दृश्य समझाते मिल जाते कभी उसका लिखा हुआ सुनते हुए। हनू दा की तीन फ़िल्में आ चुकी थीं। तीनों ही उनका नाम नहीं चमका सकीं थीं। इसका उन्हें बेहद अफसोस था। वे अब किसी ऐसी हिरोइन की तलाश में जिसके बूते नाम कमा सकें।

रीतू की मां ने झिझकते हुए पूछा था-''क्या हिरोइन तय हो चुकी है?''

उन्होंने साफ इनकार किया था-''अभी नहीं। उसी की तलाश हो रही है। कुछ लोग उनकी निग़ाह में ज़रूर है लेकिन अभी शूटिंग शुरू होने में एकाध महीने की देर है। अभी पटकथा का काम भी पूरा नहीं हुआ है।''

रीतू और उसकी मां के दिल में रह-रह कर बात उठती थी काश उसे ही हिरोइन के तौर पर अवसर मिल जाये। रीतू की मां ने उसे हनू दा के स्टूडियो में कभी-कभार अकेले जाने का भी इशारा किया था। जब वह अकेले गयी तो हनू दा ने उसे ऐसी तस्वीरों वाला एलबम दिया जिसमें एक युवती व एक युवक थे, विभिन्न मुद्राओं में प्रेमरत। युवती के ज़िस्म के अधिकांश हिस्से अनावृत थे।

वह किन्चित संकोच के साथ तस्वीरें देखती रही। जब उसने एलबम रख दिया तो हनू दा ने कहा-''मैं इन तस्वीरों को तुम्हें इसलिए दिखा देना चाहता हूं, क्योंकि संभव है ऐसे दृश्य भी तुम्हें देने पड़ें। तुम नहीं जानती। दरअसल मैं तुम्हें उन लोगों में रखा है जिन्हें इस फ़िल्म की हिरोइन बनाया जा सकता है। यदि तुमने ऐसे दृश्य देने से इनकार कर दिया तो क्या होगा? यह भी संभव है कि ऐसे दृश्य न हों या फिर बेहद कम हों। कोशिश की जाती है कि ऐसे दृश्य हों क्योंकि करोड़ों के फ़िल्मी खेल में सफलता का कोई हथकंडा बिना आजमाये नहीं छोड़ा जाता। जो पैसा लगता है उसे तो निकालना ही होगा न!

दुनिया ग्लैमर के पीछे भाग रही है। हिरोइन को दर्शकों को कुछ न कुछ तो देना होगा तभी तो वह अपनी कमाई का पैसा उसके पीछे लुटायेगा।''

रीतू ने जब मन की खुशियों पर काबू करते हुए रुंधते गले से कहा था कि उसे कोई एतराज नहीं है तो हनू दा ने उसे हाथ मिलाकर बधाई दी थी। कहा था-''अब समझो कि काम हो गया लेकिन एक बात और। मुझे यह भी देखना पड़ सकता है कि तुम्हारा फ़ीगर कैसा है? माफ़ करना यह ज़रूरी है। हम लोग धंधेबाज हैं। फ़ीगर ठीक नहीं हुआ तो ठीक करने का भी इतंजाम करना होगा। रंग और स्कीन कैसी है यह भी देखना पड़ता है। कभी तुम्हें देखना पडे़गा।''

और रीतू से रहा नहीं गया था। उसे लगा था कि कहीं थोड़ी सी लापरवाही हुई और मौका हाथ से चला न जाये। उसने कहा था-''बाद में क्यों? वे उसे आज और बल्क़ि अभी देख लें।''

उसने हनू दा के पास बैठे पट-कथाकार को देख कर यह कहा था। हनू दा ने समझ लिया कि वह पट-कथाकार से झिझक रही है।

उसने कहा था-''कोई बात नहीं यह बाहर बैठेंगे।''

और अब स्टूडियो के उस कमरे में रीतू थी और हनू दा। रीतू ने अपने कपड़े एक-एक कर उतारे थे। रीतू को इसमें कोई झिझक नहीं थी बल्क़ि उसे अच्छा लग रहा था। उसे लगा था कि यह उन परीक्षा की घड़ियों में से एक है, जिनकी उसने लम्बी तैयारी की थी। उसे पता था कि उसका हुस्न का जादू सिर चढ़कर बोलेगा।

और हनू दा ने वैसा ही किया था। उसके मुंह से प्रशंसा के शब्द निकल रहे थे। वह उसे अपना ज़िस्म यों दिखा रही थी जैसे कोई दुकानदार अपने सबसे उम्दा सामान दिखा रहा हो। उसकी तंत्रा तब टूटी थी जब हनू दा ने उसे ज़िस्म को सहलाना शुरू कर दिया था और एकाएक उसके उपरी अंतरवस्त्र खींच कर झटके से उतार दिया था, जो एक महीन धागे से बंधा हुआ था। फिर उसने उसे अपनी बाहों में भींच लिया था और कहा था-''तुम्हारा हिरोइन बनना तय हो गया है। तुम्हें इस तरह के व्यवहारों का आदी होना होगा। यह सब छोटी बातें हैं और फिल्मी दुनिया में एकदम आम। तुम्हें बड़ी-बड़ी बातें सोचनी चाहिए।''

रीतू को भी बुरा जैसा कुछ नहीं लग रहा था। उसका दिमाग हनू दा की बातें सुनने के बाद एक सितारों भरी दुनिया में खो गया था। वह जैसे हवा में तैर रही थी-'मैं कुछ ही दिनों में स्टार बन जाऊंगी। प्रशंसकों की भीड़ मेरे इर्द-गिर्द होगी। मैं सबको आटोग्राफ दूंगी। चारों तरफ कैमरे ही कैमरे और उनका चमकता हुआ फ्लैश। मैं हवाई यात्राएं करूंगी। कुछ ही दिनों में वह बांग्ला फिल्में छोड़ दूंगी और हिन्दी फिल्मों में आ जाऊंगी।'' दिवास्वप्नों की अन्तहीन सिलसिला कौंध गया आंखों के आगे।

उसका ध्यान तब भंग हुआ था जब फ़ोन की घंटी बजने लगी थी। उसने अपनी बंद आखों को खोला तो पाया कि हनू दा लगभग हांफ रहा था और अपने कपड़े पहन रहा था। रीतू ने अपने ज़िस्म पर निगाह डाली थी। उसके अपने ज़िस्म पर कोई कपड़ा नहीं था। वह टैक्सी पर सवार हुई तो उसे उसकी रफ़्तार बहुत कम लग रही थी। वह चाहती थी जल्द से जल्द किसी को खुशख़बरी दे दे।

लगभग दौड़ते हुए अपने घर पहुंच कर उसने अपनी मां को गले लगाते हुए खुशख़बरी दी थी कि उसे हिरोइन के तौर पर चुन लिया गया है। शेष जो हुआ उसकी उसने अपनी मां को भनक तक नहीं होने दी थी। उसके बाद तो हनू दा से वह एकांत में बचने की कोशिश करती और उसके संकेतों को समझ कर हनू दा ने उसे परेशान भी नहीं किया। इसलिए भी उसे हनू दा बुरा नहीं लगा।

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